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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पारिभाषिकः । के पीछे सम्बन्धियों के काम करता है क्योंकि मित्र आदि के कार्य निज शरीर को अपेचा में बहिरङ्ग हैं । १३ ॥ ४॥ अब असरगावहिरङ्ग लक्षण परिभाषा में ये दोष हैं कि (अच>व्यति अक्षद्यः, हिरण्यः ) यहां ( दिव ) धातु से किप प्रत्यय के परे विप को मान के वकार को जठ् होता है उस बहिरङ्गऊड को असिद्ध मानें तो यणादेश नहीं हो सकता इत्यादि दोषों को निवृत्ति के लिये यह अगली परिभाषा है । ४५-नाजानन्तर्य बहिष्ट्वप्रक्लप्तिः ॥ अ० १ । ४ । २ ॥ . अहां दोनों प्रश्नों के समीप वा मध्य में कार्य विधान करते हो वहां अन्तरङ्ग बहिरङ्ग लक्षण परिभाषा नहीं लगतो इस से (अक्षयूः) आदि में वहिरङ्ग ऊठको जब असिब नहीं माना तो यणादेश भी होगया तथा ( षत्वतुको रसिद्धः ) इस सूत्र में तक ग्रहण का यही प्रयोजन है कि ( अधोत्य, प्रेत्य ) इत्यादि प्रयोगों में तुक अन्तरङ्ग और सवर्णदोषं तथा गुण एकादेश बहिरङ्ग है जो तुक अन्तरङ्ग के करने में बहिरङ्गएकादेश असिद्ध होजाता तो तुक हो ही जाता फिर तुग. विधि में एकादेश को असिद्ध करने से यह ज्ञापक निकला कि जो दो अचों के आश्रय बहिरङ्ग कार्य हो वह अन्तरङ्ग कार्य की दृष्टि में असिद्ध नहीं होता। इसी तुकग्रहणमापक से यह परिभाषा निकली है ॥ ४५ ॥ (गामान प्रिया यस्य स गामप्रियः,यवमप्रियः,गोमानिवाचरति गोमत्यते, यवम यते) इत्यादि प्रयोगों में समासाश्रित अन्तर्वतिमीविभक्ति का लुक हिपदा. श्रय होने से बहिरङ्ग और (हल्यादि) सूत्र से प्राप्तसुलोप एकापदायय होने से अन्तरङ्ग है सो नो बहिरङ्गका बाधक अन्तरङ्ग होजाये तो नुम् आदि कार्य होकर (गोमत् प्रियः) प्रयोग सिद्ध नहीं किन्तु (गोमान् प्रियः) ऐसा प्राप्त होवे से अनिष्ट है इसलिये यह परिभाषा है । ४६-अन्तरङ्गानपि विधीन बाधित्वा बहिरङ्गो लुग् भवति ।। अ० ७।२।९८॥ अन्तरङ्ग विधियों को बाध के भी बहिरङ्गलक होताहै अर्थात् जब अन्तर्वर्तिनी विभक्ति का लक समासाश्रय होने से बहिरङ्ग हुआ एकपदाश्रय सुलोप आदि अंतर. ङ्गों का बाधक होगयातो(नलमतांगस्य) इस सूत्र से नुवादि करनेमें प्रत्ययलक्षण का निषेध होकर गोमप्रियः) त्यादि प्रयोग बनजाते हैं तथा प्रत्ययोत्तरपदयोस) For Private And Personal Use Only
SR No.020882
Book TitleVedang Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Sarasvati Swami
PublisherDayanand Sarasvati Swami
Publication Year1892
Total Pages326
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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