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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पारिभाषिकः । अपत्याधिकार में ऋषिधाची होने से(अप)प्राप्त और "जूकारान्तठाच्” होने से ढक प्राप्त है से पूर्व (अण) को बाध के परविहित (ढक्) होता है जैसे (अनेर पत्यम् , आत्रेयः) इत्यादि । भू धातु से लिट् लकार के णल प्रत्ययके परे (भूXअ) इस अवस्था में हित्व, यणादेश, उवङ, गुण, वृद्धि और वुक आगम ये सब प्राप्त हैं (द्विवचन ) नित्य होने से पर यणादेश का बाधक है ( उवङ) अन्तरङ्ग होने से नित्य हित्व का भी बाधक है और ( उपङ्) का अपवाद (गुण) गुण का अपवाद (कृषि) और इन दोनों का अपवाद निरवकाश होने से ( वुक ) हो जाता है। इसी प्रकार अन्य भी बहुत प्रयोगों में यह परिभाषा लगतीहै ( दुबूषति ) यहां सन् प्रत्यय के परे (दिव ) धातु के वकार को जठ किये पीछे द्विवचन और यणादेश दोनों प्राप्त हैं नित्य होने से हिवंचन होना चाहिये फिर नित्य द्विवचन से भी अन्तरङ्ग होने से यणादेश प्रथम हो जाता है। इत्यादि ॥ ३८ ॥ (ईजतुः) यहां यज् धातु से (अतुस्) प्रत्यय के परे हित्व को बाध के परत्व से (संप्रसारण) होता है फिर हित्व होना चाहिये वा नहीं इसलिये यह परिभाषा है। ३९-पुनः प्रसङ्गविज्ञानात् सिद्धम् ॥ अ. १ । ४ । २ ॥ परत्व से वा अन्य किसी प्रकार से प्रथम बाधक कार्य हो जावे । फिर जो उत्स में कार्य की प्राप्ति हो तो उत्सर्ग भी हो जावे। इस से(यज)धातु को संप्रसा. रण किये पीछे भी हित्व होजाता है।इसीप्रकार परत्व से (हि) के स्थान में तातङ आदेश होने से फिर हि को धि न होना चाहिये सो भी ( तातड) के निषेध पक्ष में (हि) को (धि ) होकर (भिन्धि) आदि प्रयोग बन जाते हैं पूत्यादि अनेक प्रयोजन हैं ॥ ३८॥ ___ लोक में यह रीति है कि तुल्य अधिकारी दो स्वामियों का एक भत्य होता के तो वह आगे पीछे दोनों के कार्य किया करता है परन्तु जो उस भत्य को दोनों स्वामी अनेक दिशाओं में एक काल में कार्य करने के लिये आज्ञा दें तो उस समय जो वह किसी का विरोधी न हुआ चाहै तो दोनों के कार्य न करे क्योंकि एक को एक काल में दोदिशाओं में जाके दो कार्य करना असम्भव है फिर जिस का पोछे करेगा वही अप्रसन होगा , इसी प्रकार सूत्रों में भी दोमें जो बलवान् होगा वह प्रथम हो जावे गा और जो दोनेां तुल्यबल वाले होंगे तो एक दूसरे को हटाने से लोक के तुल्य एक भी कार्य न होगा। जैसे स्त्रीलिङ्ग में वर्तमान (त्रि, चतुर ) शब्द को सामान्य विभक्तियों में (तिस्, चतस ) आदेश कहे हैं और (त्रि ) शब्द को (श्राम ) विभक्ति के परे (त्रय) आदेश भी कहा है For Private And Personal Use Only
SR No.020882
Book TitleVedang Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Sarasvati Swami
PublisherDayanand Sarasvati Swami
Publication Year1892
Total Pages326
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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