SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पारिभाषिकः । ११-अर्थवत आगमस्तद्गुणीभूतोऽर्थवग्रहणेन गृह्यते* ॥ अ. १।१ । २० ॥ जो अर्थवान् प्रकृति आदि को टित् कित् और मित् आगम होते हैं वे उन्हीं प्रकृति आदि के स्वरूपभूत होने से उन्हीं के ग्रहण से ग्रहण किये जाते हैं अर्थात वे पुक आदि आगम प्रकति आदि से पृथक स्वतन्त्र नहीं समझे जाते इस से(प्रणिदापयति आदि में पुगन्त को भी घुसज्ञा के होजाने से णत्व आदि कार्य होजाते हैं तथा ( सर्वेषाम् ) इत्यादि प्रयोगों में भी सुडादि आगमों के तद्गुणीभूत होने से साम्)को भलादि सुप मानकर एकारादेश होहोजाता है इसी प्रकार लोक में भी किसी प्राणी का कोई अङ्ग अधिक होजावे तो वह उसी के ग्रहण से ग्रहण किया जाता है ॥ ११ ॥ अब ( पादः पत्) इस मूत्र से जो पाद शब्द को (पत) आदेश कहा है यहां तदन्तविधि परिभाषा के आश्रय से द्विपात्, त्रिपात्) शब्दों काभी भसंज्ञा में (पत) आदेग होता है उस पत् आदेश के अनेकाल होने से द्विपात् त्रिपात् संपूर्ण के स्थान में प्राप्त है सो जो संपूर्ण के स्थान में हो तो ( हिपदः पश्य, त्रिपदः पश्य ) इत्यादि प्रयोग न बन सकें इसलिये यह परिभाषा कही है। १२-निर्दिश्यमानस्यादेशा भवन्ति ॥ अ० ६ । ४ । १३० ॥ षष्ठी विभक्ति से दिखाये हुए स्थानो के स्थान में प्राप्त जो प्रथमानिर्दिष्ट आदेश वह निर्दिश्यमान अर्थात् सूत्रकार वा वार्तिकार ने जितने स्थानी का निर्देश किया हो उसी के स्थान में हो अर्थात् तदन्तविधि से जो पूर्व पद वा अन्य उसके सदृश कोई आजावे तो उस सब के स्थान में न हो। दूस से द्विपात् शब्दमें पादमात्र को पत् आदेश हो जाता है (दि,त्रि) आदि बच जाते हैं इसौ से( विपदः पश्य ) इत्यादि प्रयोग बन जाते हैं ॥ १२ ॥ ___ अब ( चेता, स्तोता )इन प्रयोगों में (स्थानेऽन्तरतमः)इस सूत्र से प्रमाणात आन्तयं माने तो इस कार उकारके स्थान में अकार गुण प्राप्त है इससे अभीष्ट प्रयोगों को सिद्धि नहीं होती इसलिये यह परिभाषा को है। * जो नागेश और भट्टी जिदीक्षित आदि नवीन लोग इस परिभाषा की(यदागमासादगुणीभूतास्त रोहणेन गृह्यन्ते ) इस प्रकार की लिखते मामते और व्याख्यान भी करते हैं सा यह पा. महाभाष्य से विरुद्धमा हाभाष्य में यह परिभाषा ऐसौ कहीं नहीं लिखो इसलिये इन लोगों का प्रमाद है। For Private And Personal Use Only
SR No.020882
Book TitleVedang Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Sarasvati Swami
PublisherDayanand Sarasvati Swami
Publication Year1892
Total Pages326
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy