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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ओ३म् अथ पारिभाषिकः । परितो व्याप्तां भाषां पारिभाषां प्रचक्षते । सब ओर से वैदिक लौकिक और शास्त्रीय व्यवहार के साथ जिस का सम्बन्ध रहे अधात उक्त तीनों प्रकार का व्यवहार जिस से सिद्ध हो उस को परिभाषा कहते हैं। इस पारिभाषिक ग्रन्थ में प्रथम परिभाषा को भूमिका लिख कर आगे लक्ष्य अर्थात् उदाहरण लिख के पुनः मूल परिभाषा लिखेंगे । और उस के आगे उस का स्पष्ट व्याखान करेंगे । अब प्रथम पाणिनीय व्याकरण अष्टाध्यायी के प्रत्या. हारसूत्रों में (अण, लण ) इन दो सूत्रों में लोप होने वाला हल णकार पढ़ा है इस णकार से (अण) और (वण ) दो प्रत्याहार बनते हैं। सो जिन सूत्रों में अण पूण प्रत्याहारों से काम लिया जाता है वहां सन्देह पड़ता है कि किन २ सत्रों में पर्व और बिन में पर णकार से (अण् ) तथा(इश् )प्रत्याहार माने इस सन्देह की निवृत्ति के लिये यह परिभाषा है । १-व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिर्नहि सन्देहादलक्षणम् ॥ लण सूत्र पर। जिस सूत्र वा वात्तिक आदि में सन्देह हो वहां व्याख्यान से विशेष बात का निश्चय कर लेना चाहिये किन्तु सन्देहमात्र के होने से सूत्र आदि ही को अन्यथा न जान लेवें । जहां पृथक २ देखे हुए दो पदार्थों के समान अनेक विरुद्ध धर्म एक में दीख पड़ें और उपलब्धि अनुपलबधि को अव्यवस्था हो अर्थात् जो पदार्य है और जो नहीं है दोनों की उपलब्धि और दोनों को अनुपलब्धि होती है कौकि पदाथा के साधारण धर्म को लेकर सन्देह होता है उन में से जब विशेष अर्थात किसी एक को निश्चय हो जाता है तब सन्देह नहीं रहता जिन सूत्र आदि में सन्देह पड़ता है, वहां उन में छ: प्रकार का व्याख्यान करना चाहिये पदच्छेद, पदार्थ, अन्षय, भावार्थ, पूर्वपक्ष-शङ्का, उत्तरपक्ष-समाधान इन छ: प्रकार के व्याख्यानों से संदेही की निवृत्ति कर लेनी चाहिये ( प्रश्न ) जैसे प्रथम (ढलोपे. For Private And Personal Use Only
SR No.020882
Book TitleVedang Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Sarasvati Swami
PublisherDayanand Sarasvati Swami
Publication Year1892
Total Pages326
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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