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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१२) वसंतराजशाकुने-प्रथमो वर्गः। पौरुषेण हृदयेप्सितां गतिं प्राप्नुवंति पुरुषाः सुमेधसः॥ यांति देवशरणाः क्षयं यथा पादपा ज्वलति दावपावके ॥ ॥ २० ॥ दैवमेव यदि कारणं भवेत्रीतिशास्त्रमुपयुज्यते कथम् ॥ यदलेन सुधियो महोद्यमाः पालयति जगती जनाधिपाः॥२१॥ ॥ टीका ॥ त्यर्थः। दूरतस्त्यजति परिहरतीत्यर्थः । कीदृशो देवशरण इंति देवं भाग्यं तदेव शरणं यस्यस तथा किमुद्यमेन भाग्यादेव समीहितार्थसिद्धिर्यथा।"समुद्रमथनाल्लेभे हरिलक्ष्मी हरो विषम्" इति जनानां पुरः प्रतिपादयनित्यर्थः। तेन कारणेन तत्पौरुषं देवतोप्यधिकं स्फुरति । यतो दैवशरणोपि मानवः प्रयत्नेनैतान्दुरीकरोत्यतो मानवः दैवादपिबलवानित्यर्थः॥ १९ ॥ पौरुषेणेति ॥ यथा देवशरणाः पादपा दावपावके वनोद्भववह्नौ ज्वलति दीप्यमाने क्षयं याति तथा पौरुषेण नियोगेन सुमेधसः पुरुषास्तत्र क्षयं न याति किं तु पौरुषेण पराक्रमेण मनोभीष्टा हृदयेप्सितां गति प्राप्नुवंतीत्यर्थः।दैवशरणाः दैवमेव शरणं परित्राणं येषां ते तथाविधाः पुरुषाः क्षयं यांति।अतः दैवादुद्यम एव बलवानित्यर्थः ॥ २० ॥ दैवमिति ॥ यदि दैवमेव कारणं नियामकं भवेत् अत्रान्ययोगव्यवच्छेदपर एक्शब्दः । तदा नीतिशास्त्रं ॥ भाषा। ण जाके उद्यमकरके कहा होय है भाग्य ते ही वांछित सिद्धि होयहै ऐसो मनुष्य, सर्प, अग्नि, विषकंटकादि भयके उत्पादन करवेवारे औरभी तिने दूरतेही त्याग करै, और जैसे समुद्रमथनमेंते हरि भगवान् लक्ष्मीप्राप्त होते हुये और शिवजी विषप्राप्त होते हुये ता कारणते वो पुरुषार्थ दैवते भी अधिक वर्ते है याते जो भाग्यके ऊपर है सोभी यत्न करके ही सादिकनकू दूर कर है, यातें दैवते भी पुरुषार्थ बलवान् है ॥ १९॥ पौरुषेणेति ॥ जैसे देव है शरण जिनके ऐसे जे वृक्ष ते वनकी अग्नि प्रज्वलित होय तब भस्म होय जातेहैं, तैसे सुंदरहै बुद्धि जिनकी ऐसे पुरुषार्थ करके नाशकू नहीं प्राप्त होय हैं, किंतु पराक्रम करके हृदयमें वांछित जो गति ताय प्राप्त होय हैं, यातूं दैवते उद्यमही बलवान् है. ॥ २० ॥ दैवमिति ॥ जो दैवहीं कारण होय, तो नीतिशास्त्र कैसे प्रवर्त होय रह्यो है For Private And Personal Use Only
SR No.020879
Book TitleVasantraj Shakunam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantraj Bhatt, Bhanuchandravijay Gani
PublisherKhemraj Shrikrushnadas Shreshthi Mumbai
Publication Year1828
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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