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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पिंगलारुते संकीणप्रकरणम् । धूत्वा शिरोंगान्यथ वा विहंगः शुभस्वरो रोगमुपादधाति ॥ अशस्तशब्दस्तु ददात्यसाध्यबाधावहंदुस्तरदुःखदाहम् १४९॥ उन्मूलिते भूरुहि दुष्टशब्दैनष्टावशेषोऽपि विनश्यतेऽर्थः॥ प्रलंबमानः सकलप्रणाशमसंशयं शंसति खेशयोऽयम् १५०॥ प्रभूतपुष्पे परमप्रमोदो व्याधिक्षयस्त्वक्षतपल्लवाढये॥अत्यर्थलाभ फलशोभिशाखे वृक्षे भवेत्क्षीरिणि भूमिलाभः।।१५१॥ विवर्जिताभ्यर्चितपादपश्चेद्गत्वा परं वृक्षमदृश्यमानः ॥ दीप्तध्वनिः स्याद्विहगस्तदानीं संदेहमाहुर्नहि देहहानौ ॥ १५२॥ ॥टीका॥ शांतत्रये स्थानाप्तिरोगक्षयवित्तलामा इति त्रितयं क्रमेण स्यात् तत्र रोगस्य क्षयः नाशः पर्वतस्य मूर्द्धनि कृताश्रयः पिंगचक्षुःबह्रीं श्रियं यच्छति।।१४८॥धूत्वेति॥अथवा शिरोंगानि धूत्वा शुभस्वरोविहंगोरोगमुपादधाति अशस्तशब्दस्तु असाध्यवाधावहंदुस्तरदुःखदाहं ददाति ॥१४९॥ उन्मूलित इति ॥उन्मूलिते भूरुहि दुष्टशब्दैनष्टावशेषोऽप्यर्थों विनश्यति खेशयः प्रलंबमानः असंशयं सकलप्रणाशं शंसति ॥ ।। १५० ॥प्रभूतेति॥प्रभूतपुष्पे परमः प्रमोदः स्यात् अक्षतपल्लवाढये व्याधिक्षयः स्यात् फलशोभिशाखेत्यर्थलाभः स्यात् क्षीरिणि वृक्षे भूमिलाभः स्यात् ॥ १५१ ॥ विवर्जितेति ॥ चेयदि विहगः विवर्जिताभ्यर्चितपादपः सन्परं वृक्षं ॥भाषा ॥ तो क्रम करके स्थानकी प्राप्ति, रोगको क्षय, वित्तको लाभ, ये तीनों होय. जो पिंगल पर्वतके ऊपर बैठो होय तो बहुतसी श्री देवे ॥ १४८ ॥ धृत्वेति ॥ जो विहंग मस्तक अंग इने कंपायमानकरके शुभस्वर बोले तो रोग करे, और अशस्त शब्द बोले तो असाध्यबाधा कर. ऐसो दुस्तर दुःखदाह करै॥ १४९ ॥ उन्मलित इति ॥ जड जाकी उखडगई ता वृक्षपै पिंगल दुष्ट शब्द बोले तो नष्ट हुये कार्यमसू अवशेष रह्यो अर्थ ताय नाश करे. जो पक्षी लंबो दूर चल्यो जाय तो निःसंदेह सकल नाश करै ॥ १५० ॥ प्रभूतेति ।। बहुत पुष्प जामें ऐसे वृक्षपैः पिंगल होय तो परमहर्ष करै. और अक्षत होय फल पुष्पसहित वृक्ष होय तापै स्थित होय तो व्याधिको नाश करे. और फलकर शोमायमान वृक्षपै होय तो अत्यंत लाभ करै. और दूधवान् वृक्षपै स्थित होय तो पृथ्वीको लाभ होय ॥ १५१ ॥ विजितेति ॥ पक्षीनकरके वर्जित अर्चन कियो हुयो वृक्ष तापै जायकर १ आत्मनेपदमसाधु। For Private And Personal Use Only
SR No.020879
Book TitleVasantraj Shakunam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantraj Bhatt, Bhanuchandravijay Gani
PublisherKhemraj Shrikrushnadas Shreshthi Mumbai
Publication Year1828
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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