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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १५२ ). वसंतराजशाकुने-सप्तमो वर्गः। भक्ष्यं जिघृक्षौ शकुने पतंगः पलायते पूर्वमथाभियोगात स्याद्रोचरश्चेत्स तदा प्रदिष्टः कष्टादभीष्टस्य फलस्य लाभ: ॥.१५७ ॥ भक्ष्यं जिघृक्षुर्यदि चांतराले भक्ष्यांतरं विदति कृष्णपक्षी ॥ अवांतरे तत्र फलांतरं स्यात्फलद्वयं भक्ष्ययुगस्य लांमे ॥ १५८ ॥ कृष्णा कृमि वांछति यं ग्रहीतुं पलायतेऽसौ लभते ततोऽन्यम् ॥ स्यादिष्टलाभादपरार्थलाभो भक्ष्यानवाप्तौ तु फलानवाप्तिः ॥ ३५९॥ ॥ टीका।। तारा भूत्वा शुभप्रदेशे कृतस्थितिरित्यर्थः भक्ष्यं गवेषयंती किंचिनलभते तदोनं लाभ फलं विदधाति संप्राप्तभक्ष्या पुनः पूर्ण फलं कुरुते ॥ १५६ ॥ भक्ष्यमिति ॥ भक्ष्य जिघृक्षौ ग्रहीतुमिच्छुः जिवृक्षुस्तस्मिन्छकुने विहंगे सति पूर्वमेव पतंगः भक्ष्याभिमुखीभूतः कीट पलायते नश्यति अथाभियोगात्प्रयत्नतः दृग्गोचरश्चेत्स स्यात् तदा कष्टादभीष्टस्य फलस्य लाभः प्रदिष्टः ॥ १५७ ॥ भक्ष्यमिति ॥ यदि च भक्ष्यं जिघृक्षुरंतराले मध्ये कृष्णपक्षी श्यामा भक्ष्यांतरं विदति प्रामोति । तत्रेति प्रस्तुतकार्य: स्य अवांतरे मध्ये फलांतरं स्यात् भक्ष्ययुगस्य लाभे फलद्वयं स्यादित्यर्थः ॥१५॥ कृष्णेति ॥ कृष्णा वराही यं कृमि ग्रहीतुं वांछति असौ चेत्पलायते नश्यते ततोन्यं कृमि लभते तदेष्टलाभादपरोऽन्योर्थलाभः स्यात् । तु पुनः भक्ष्यान ॥भाषा ॥ दक्षिणा होय कर उत्तमस्थानदेशमें जाय बैठ और भक्ष्यकू ढूंढ रही होय और भक्ष्य वाकू न मिले कळूभी तो न्यूनफल देवे और जो भक्ष्य वाकू मिलजाय तो फिर पूर्ण वांछित फल करै ।। ॥ १५६ ।। भक्ष्यामिति ॥ प्रथम तो भक्ष्यपदार्थकू ग्रहणकरबेकी इच्छा करतो होय फिर पतंग पक्षी भक्ष्यके सम्मुख भागजाय और फिर आंखनके अगाडी दीखजाय तो कष्टते वांछित फलको लाभ होय ॥ १५७ ॥ भक्ष्यमिति ॥ जो पोदकी कोई भक्ष्यवस्तुकू ग्रहण करती होय भौर बीचमें दूसरो भक्ष्य प्राप्त होय जाय तो मनुष्यकं भी कार्यके बीचमें औरभी दूसरो फल मिलजाय वा पक्षीकू दोफल भक्ष्यकी प्राप्तिके हुयेसूं फल भी दोय मिलें ॥ १५ ॥ कृष्णेति ॥ कृष्णा जो पोदकी जा कीडाकू ग्रहण करखेकी इच्छा करे वो कौडा तो भाग जाय वाते और प्राप्त होय जाय तो मनुष्यकुंभी वांछित फलते दूसरो अर्थलाभ होय और For Private And Personal Use Only
SR No.020879
Book TitleVasantraj Shakunam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantraj Bhatt, Bhanuchandravijay Gani
PublisherKhemraj Shrikrushnadas Shreshthi Mumbai
Publication Year1828
Total Pages596
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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