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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobaturm.org Acharya Sh Kailasagarsur Gyanmandir पर्थमान ॥३०॥ SARKA-N.154 श्तोऽपि बहुधान्यादि । नृत्वा प्रवहणे निजे ॥ यांति विदेशिनस्ते तु । द्रव्यलाभाय सर्वदा 5 चरित्रम्, | ॥५२॥ अथ चेन्मे तवादेश-स्तदा लाजसमुत्सुकः॥ याम्यहं यानपात्रस्थ-श्चीनदेशे प्रहर्षितः ॥५३॥ यूयमत्र स्थिताः स्वीय-कुटुंबपरिपालनं ॥ धर्मध्यानपरा नित्यं । कुरुध्वमप्रमद्धराः ॥५४॥ बांधवस्य निशम्यैवं । वाणी न विनयान्वितां ॥ वर्धमानो मुदा वर्ध-मानोऽथ मधुरं जगौ ॥५५॥ जातरत्र वचनं बहु मन्ये । तावकीनमपि साहससंग ॥ ते वियोगजनितं मम दुःखं । मानसं बत परंतु दुनोति ॥ ५६ ॥ बळी ते विदेशी व्यापारीओ अहिंथी पण घणुं धान्य आदिक पोताना वहाणोमा भरीने हमेशा द्रव्यना लाभमाटे लेइ जाय हे. ।। ५७॥ माटे हवे जो आपनी आज्ञा होय तो हुँ पण द्रव्य मेळववामाटे उत्सुक थयोथको हर्षथी वहाणमा बेसी चीनदेशमा जाउं. ॥५३॥ अने आप अहिं हुशियार रहीने हमेशा धर्मध्यानमा तत्पर थइ आएणा कुटुम्बन रक्षण करो। ॥५४॥ एची रीतनी पोताना भाइनी विनययुक्त वाणी सांभलीने पछी हर्षथी वृद्धि पामता वर्धमान मधुर स्वरथी बोल्या के, || ॥ ५० ॥ हे भाइ ! तमारां आ साहसवाळा (हिम्मतभरेला ) वचनने जो के हुं बहु उत्तम मार्नु छ, परंतु तमारा वियोगथी उत्पन्न यतुं दुःख मारा मनने दुभावे छे. ॥५६॥ For Private And Personal use only
SR No.020877
Book TitleVardhaman Padmasinh Shreshthi Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarsagarsuri
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1924
Total Pages159
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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