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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यह ध्यातव्य है कि दण्डी ने प्रचलित साहित्य को चार भेदों-(संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं मिश्र) में विभक्त किया है। भाषा-भेद का उसका दृष्टिकोण नहीं है। कुछ लोग अपभ्रंश को भ्रमवश प्राकृत से भिन्न मानने लगते हैं, किन्तु दण्डी ने ऐसा कभी भी नहीं किया और कहीं भी नहीं कहा। जिस प्रकार पालि प्राकृत का एक प्राचीनतम रूप है, उसी प्रकार अपभ्रंश भी प्राकृत का एक नवीनतम रूप है। चम्पू-काव्यकार उद्योतन सूरि के विचार क्रमशः विकसित होते-होते अपभ्रंश-भाषा ने आठवीं सदी तक एक ऐसा गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया था कि जैन महाकवि उद्योतन सूरि (वि. सं. 835) को अपनी "कुवलयमालाकहा' में संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश की तुलना करते हुए लिखना पड़ा__"अनेक पद-समास, निपात, उपसर्ग, विभक्ति एवं लिंग इनकी दुरूहता के कारण संस्कृत दुर्जनों के समान विषम है। समस्त कला-कलापों की माला-रूपी जल-कल्लोलों से व्याप्त, लोकवृत्तान्त रूपी महासागर से महापुरुषों द्वारा निष्कासित, अमृत-बिन्दुओं से युक्त तथा यथाक्रमानुसार वर्णों एवं पदों से संघटित विविध रचनाओं के योग्य और सज्जनों की मधुर-वाणी के समान ही सुख देने वाली प्राकृत-भाषा होती है। संस्कृत एवं प्राकृत से मिश्रित शुद्ध-अशुद्ध पदों से युक्त सम एवं विषम तरंग-लीलाओं से युक्त, वर्षा-काल के नवीन मेघ-समूहों के द्वारा प्रवाहित जलपूरों से युक्त, पर्वतीय नदी के समान तथा प्रणयकुपित प्रणयिनी के समुल्लापों के समान ही अपभ्रंश रसमधुर होती है।" रुद्रट (नौवीं सदी) ने अपने काव्यालंकार में अपभ्रंश को साहित्यिक भाषा का गौरव प्रदान करते हुए उसे देश-भेद से विविध प्रकार का बतलाया है। महाकवि राजशेखर (दसवीं सदी) कृत 'काव्यमीमांसा' में काव्यरूपी पुरुष के शरीर-गठन की चर्चा करते हुए अपभ्रंश को उसकी जंधा माना गया है तथा उसके प्रचार क्षेत्र मरुभूमि, टक्क एवं भादानक बताए गये हैं। एक अन्य स्थान पर उसमें सुराष्ट्र, त्रवण तथा अन्यान्य समीपवर्ती प्रान्तों के निवासियों के विषय में कहा गया है कि वे संस्कृत का प्रयोग तो बड़ा अच्छा करते हैं, किन्तु उनकी संस्कृत अपभ्रंश से मिलती हुई रहती है। आगे चलकर पुनः बतलाया गया है कि सम्राट के सभी कर्मचारियों, सेविकाओं तथा घनिष्ठ मित्रों को अपभ्रंश का ज्ञान होना नितान्त आवश्यक है। पुनः यह भी कहा गया है कि राज-दरबार में चित्रकार, माणिक्य-बन्धक, वैकटिक, स्वर्णकार, वर्द्धकि, लौहकार आदि के पूर्व अपभ्रंश-कवियों को बैठाया जाना चाहिए। आचार्य नमि साधु (सन् 1069 ई. के लगभग) ने अपभ्रंश के उपनागर, आभीर एवं ग्राम्या-ये तीन प्रमुख भेद करते हुए उसे अनेकभेदा स्वीकार किया है तथा लोक प्राकृत-अपभ्रंश साहित्य-परम्परा :: 783 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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