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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अफ्रीका में जैनधर्म डॉ. देवेन्द्र जैन विदेशों में जैनधर्म के विस्तार का लेखा-जोखा करते समय हमें दो बिन्दुओं पर ध्यान देना आवश्यक है। प्राचीन इतिहास के अवलोकन से यह ज्ञात होता है कि जैनधर्म के विचारों एवं अवधारणाओं का विदेशों में अच्छा प्रचार-प्रसार था। प्रारम्भिक शताब्दियों में, जैनधर्म न केवल भारत में, अपितु विश्व की समृद्ध प्राचीन सभ्यताओं में पहुँच बना चुका था। दूसरे बिन्दु पर विचार करते समय हम आधुनिक इतिहास पर दृष्टि रखते हैं। आधुनिक इतिहास के अध्ययन से फलित होता है कि आधुनिक युग में जैनों का विदेशों में प्रवासित होना ही प्रमुख है। व्यापार और वाणिज्य द्वारा तीव्रगति से धनोपार्जन करने के उद्देश्य से जैनों ने विदेशों में प्रवास करना प्रारम्भ किया है। आधुनिक समय में जैनों की महत्त्वपूर्ण उपस्थिति अफ्रीका में केन्द्रित रही है। कुछ प्राचीन सन्दर्भो को छोड़ दें, तो अफ्रीका में जैनधर्म कुछ सीमा तक भारतीयों के अफ्रीका में आगमन से जुड़ा हुआ है। अफ्रीका में भारतीयों का आगमन अनुबन्धित श्रमिक के रूप में सन् 1860 से प्रारम्भ हुआ है। अनुबन्धित श्रमिक की विचारधारा अंग्रेजी साम्राज्य की एक व्यवस्था थी, जो कि गुलामी के विकल्प के रूप में प्रारम्भ की गयी थी। गुलामी प्रथा की समाप्ति सन् 1833 में समग्र अंग्रेजी साम्राज्य में हुई। इसके साथ ही भारतीयों के अफ्रीका में प्रवासित होने के पश्चात् भारतीयों ने व्यापार एवं वाणिज्य में कुशल होने के कारण, व्यापारिक विस्तार के लिए अफ्रीका में प्रवासित होना प्रारम्भ किया। इसी क्रम में जैनों ने, मुख्यतया व्यापार एवं वाणिज्य के उद्देश्य से अफ्रीका में प्रवासित होना प्रारम्भ किया। सन् 1896 में पहली बार जैनों ने अफ्रीका के लिए पलायन किया। प्रारम्भिक समय में, जैनों ने छोटे वाणिज्य से कार्य प्रारम्भ किया। प्रमुखतः जो भारतीय श्रमिक रेल आदि निर्माण कार्य में कार्यरत थे, उनको आवश्यक सामग्री उपलब्ध कराना ही प्रमुख उद्देश्य था और इस प्रकार समय की एक छोटी सीमा अवधि में जैनों ने एक प्रमुख भारतीय समुदाय के रूप में खुद को स्थापित किया। सन् 1926 में मोम्बासा शहर (केन्या) में एक शानदार जैन मन्दिर की स्थापना की गई। शायद, आधुनिक युग में अफ्रीका में जैनधर्म :: 741 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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