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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जो भूमि स्पर्श करने पर ग्रीष्म ऋतु में शीतल तथा शीत ऋतु में उष्ण महसूस होती है वह भूमि श्रेष्ठ होती है । घी, दूध, दही के स्वाद वाली भूमि निवास अथवा धर्मायतन के योग्य होती है । जिस मिट्टी की गन्ध केसर, मोगरा, गुलाब, केवड़ा, चन्दन-जैसी हो, उस भूमि को भी श्रेष्ठ भूमि की उपमा दी गई है । रंगों के आधार पर हरी-पीली सफेद रंग की भूमि सुख-शान्ति एवं समृद्धि- प्रदाता होती है। जिस भूमि में ईश्वर का ध्यान करने अथवा माला जपने में मन एकाग्र बना रहे, वह भूमि ऊर्जावान होती है । इसके विपरीत यदि मन की एकाग्रता भंग हो या ईश्वर-भक्ति में विघ्न आए या उच्चाटन, हो तो निश्चित तौर पर वह भूमि शापित, बाधित या नकारात्मक है। जब तक इस भूमि की नकारात्मकता का निदान न होगा, तब तक निर्माण कार्य प्रारम्भ न करें। रासायनिक विधि में मिट्टी की दशा का ज्ञान करने के लिए चारों दिशाओं और विदिशाओं से मिट्टी एकत्रित करके आठ कटोरों में पृथक्-पृथक् डालें, साथ ही प्रत्येक कटोरे में पाँच-पाँच ग्राम सिन्दूर डालें । यदि घोल का रंग लाल बना रहे, तो भूमि उत्तम है और यदि किसी कटोरे के घोल का रंग काला हो जाए, तो उस स्थल पर नकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न करने वाला कोई भी तत्त्व भूमि में विद्यमान होगा। इसी प्रकार के आठों दिशाओं, विदिशाओं में गाय के घी दीपक जलाकर परीक्षण किया जाता है। जिस स्थल पर निर्माण करना है या निवास स्थान बनाना हो, उस भूमि का ढलान उत्तर, पूर्व या ईशान की तरफ हो, तो भूमि सुखदायी होती है । यदि ढलान आग्नेय कोण की तरफ हो, तो अग्नि का भय रहता है । यदि ढलान दक्षिण की तरफ हो, तो मृत्युतुल्य कष्ट होता है । नैऋत्य की ओर हो, तो गृह-स्वामी को संकट के बादल छाये रहते हैं । वायव्य की तरफ हो, तो चोरी का भय, पश्चिम की तरफ हो, तो शोक उत्पन्न कराती है । ग्राम, नगर, मोहल्ला, महल, घर, मन्दिर आदि का निर्माण वहाँ करें, जहाँ नदी उत्तर-पूर्व में तथा पहाड़ दक्षिण-पश्चिम में हो । यह समस्थिति सिद्धान्त (Iso stacey Principal) कहलाता है। गृह-निर्माण इस तरह करें कि उत्तर-दक्षिण दिशा की लम्बाई ज्यादा हो, जिससे पृथ्वी के चुम्बकीय प्रभाव से सम्पर्क बना रहे। ध्यान रखें कि जो भूमि ऊँची-नीची हो या वक्रीय हो या दरारें पड़ी हो, बंजर हो, साँप या चूहों का बिल हो, शापित, बाधित या पीड़ित हो, वह भूमि निवास-योग्य नहीं होती है । जहाँ पहले कभी मरघट, यमघट, कत्लखाना, अस्पताल या पुलिस थाना रहा हो उस भूमि पर कदापि मन्दिर या गृह-निर्माण नहीं करना चाहिए, क्योंकि रचना तो ध्वस्त की जा सकती है, परन्तु वर्गणाएँ सदैव विद्यमान रहती हैं । इसके साथ ही भूमि की उर्वरक क्षमता भी भूमि परीक्षण में महत्त्वपूर्ण योगदान रखती है । जिस भूमि में सप्तधान (गेहूँ, जौ, तिल, सरसों, ब्रीही, शाल, मूंग) डालने पर सात दिवस तक अनुकूल वातावरण में अंकुरित ना वास्तु :: 729 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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