SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 735
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जलधाराओं से पृथ्वी की ऊपरी सतह पर आती है, जिसका प्रभाव पृथ्वी पर निर्मित भूखण्ड, भवनों तथा कारखानों पर पड़ता है, इस ऊर्जा को भूगर्भीय ऊर्जा कहते हैं। जैन सिद्धान्त के अनुसार तीर्थंकर भगवन्त के मुखकमल से निर्गत गणधर देव द्वारा रचित 12 अंग एवं चौदह पूर्व में से दृष्टिवाद नाम के बारहवें अंग के पाँच भेद में स्थलगता के अन्तर्गत वास्तु-विद्या एवं तन्त्र-मन्त्र का वर्णन है, जिसके 2,09,89,200 पद हैं। भगवान आदिनाथ की अयोध्या नगरी भी देवों ने वास्तु के अनुसार ही बसायी थी, जिसमें जाति, वर्ण-व्यवस्था एवं दिशा के अनुसार नगर को बसाया गया था। चक्रवर्ती के 14 रत्नों में एक रत्न स्थपति (भूमि और मकान बनाने की कला) था। जब भगवान योगनिरोध क्रिया करते हैं, तब मुख सिर्फ पूर्व या उत्तर दिशा की ओर करते हैं । भगवान आदिनाथ ने अपने पुत्र अनन्तवीर्य को वास्तु का ज्ञान दिया था, तभी से यह विद्या प्रचलित है । अनादिकाल से मनुष्यों एवं देवों द्वारा जिनमन्दिर एवं समवसरण की रचना होती रही है, जिसका उल्लेख तिलोयपणत्ती, त्रिलोकसार, जम्बूदीव संगहो आदि प्राचीन ग्रन्थों में है। जिससे सिद्ध होता है कि जबसे सृष्टि है, जैन धर्म है, तभी से वास्तु - विद्या है। वास्तु को प्रभावित करने वाले मूल - घटक : मूलतः वस्तु एवं वास्तु को चार घटक प्रभावित करते हैं : द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव । द्रव्य वास्तु से अभिप्राय है कि भूमि क्रय करने में व्यय की जाने वाली राशि की गुणवत्ता। गुणवत्ता से तात्पर्य है, निर्माण में उपयोग होने वाली पूँजी । जैसे कत्लखाने, चमड़ा व्यापार, पेस्टीसाईड फेक्ट्री आदि हिंसात्मक तरीके से कमाया गया द्रव्य शुभ कार्यों (जैसे- धर्मायतन, सन्त-निवास तथा आवास आदि के लिए भी) में लगाने पर अशुभ फलदायी होता है । क्षेत्र वास्तु से अभिप्राय भूमि के गुणधर्म से है । जिस क्षेत्र का चयन करने जा रहे हैं, वह भूमि पॉवरफुल है या नहीं, उसमें कोई नकारात्मक ऊर्जा या शल्य तो नहीं है। सामान्य शब्दों में भूमि की दशा का वास्तविक ज्ञान करना ही क्षेत्र वास्तु है । काल वास्तु से अभिप्राय है, चयनित भूमि पर कार्य शुभारम्भ करने का शुभ मुहूर्त । यूँ तो समुद्र में विद्यमान सीप में पानी की बूँद सदैव ही गिरती है, परन्तु स्वाति नक्षत्र में गिरी हुई बूंद मोती का रूप धारण कर लेती है । इसी प्रकार शुभ मुहूर्त में किया गया कार्य सदैव ही निर्विघ्न और शुभ फलदायी होता है। भाव वास्तु से अभिप्राय है, शिल्पी के निर्माण करते वक्त भावों की प्रधानता । अगर निर्माण करने वाले शिल्पी के भाव शुद्ध हों और वह सन्तुष्ट हो, तो कार्य सुचारु रुप से सम्पन्न होता । अतः शिलान्यास के समय सर्वप्रथम शिल्पी का टीकाकरण वस्त्र और मुद्रा के द्वारा करना चाहिए । 726 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy