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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूक्ष्म, पुष्ट, अपुष्ट और कृत्रिम। नाभि में अतिसूक्ष्म, हृदय में सक्ष्म, कंठ में पृष्ट, सिर में अपुष्ट और मुख में कृत्रिम-नाद निवास करता है। कुछ विद्वानों के मत में शिर में अपुष्ट के स्थान पर अव्यक्त नाद का उल्लेख है, परन्तु हम उसे नहीं मानते; क्योंकि वह उत्पन्न नहीं है, तो उसकी सत्ता कैसे?... अर्थात् उन्हें शिर में अव्यक्त नाद की स्थिति स्वीकार नहीं। वे आगे कहते हैं कि नाद से बिन्दु की उत्पत्ति होती है और नाद से सम्पूर्ण वाङ्मय अर्थात् वार-विस्तार की उत्पत्ति होती है। आचार्य सुधाकलश का कथन है- "ताना, नाता, नता, नन्ता, तेन्न, तेन्नक, तन्नक, प्रत्येक स्वर में सात-सात तान हैं।" उनके मूल शब्द हैं "तन्न तेन्ना यदुच्यन्ते तानास्ते स्वरसंस्थिताः। आलप्तिश्रुतिसंस्थानव्ययपकर्तार एव ते।। ताना-नाता-नता-नन्ता-तन्न-तेन्नक-तन्नकाः। विज्ञेयास्ते क्रमात् तानाः सप्त सप्त स्वरे स्वरे।।" ध्रुवपद/ध्रुपद गायकों की परम्परा में ये बोल आज भी आलाप के आधार हैं। आचार्य वृहस्पति संगीत-समयसार की अपनी भूमिका में कहते हैं कि विमलमतियुक्त साधक एवं शान्तचित्त प्राचीन जैन आचार्यों ने भी संगीत को श्रुतिपदविषय (गुरु-शिष्यपरम्परा के अनुसार शिक्षा का विषय) बनाया था, उनमें से एक, आचार्य पार्श्वदेव ने कुछ ऐसे तत्वों की व्याख्या की है, जो अन्य आचार्यों के द्वारा अनुक्त हैं, महात्मा श्री पार्श्वदेव अपने गुण-गण के कारण प्रसिद्ध हैं। वे आगे लिखते हैं कि संगीत-समयसार में आचार्य पार्श्वदेव ने भरत, मतंग, दत्तिल, कोहल, आंजनेय, तुम्बुरु, भोज, कश्यप और याष्टिक जैसी सभी अजैन महाविभूतियों के मत को सादर माना है, परन्तु उन्होंने जैन दृष्टिकोण के अनुसार शब्द को 'अनित्य' और 'अव्यापक' कहकर कोहल के मत का प्रचण्ड खण्डन किया है। 'भक्ति के अंगूर और संगीत-समयसार' नामक कृति में तीर्थकर मासिकी के सम्पादक डॉ. नेमिचन्द जी कहते हैं-"जैन संगीत की अपनी मौलिक परम्परा है। ललितकलाओं के क्षेत्र में जैनाचार्यों ने जो महत्त्वपूर्ण योग दिया है, उससे सम्बन्धित तथ्य उत्तरोत्तर सामने आ रहे हैं। इधर हुए अनुसंधानों ने स्थिति को और स्पष्ट व और प्रामाणिक बना दिया है।... जैनाचार्य संगीत-मर्मी इतने थे कि उन्होंने आत्म-विद्या के सन्दर्भ में दिगम्बर जैन मुनियों की विविध मुद्राओं के बड़े कलात्मक वर्णन किए हैं। संगीतसमयसार में उन्होंने अपनी अद्वितीय कला-प्रतिभा के कारण संगीत की सूक्ष्मताओं की बड़ी सुन्दर विवेचना की है। जैनाचार्यों की विशेषता यह है कि उन्होंने तपश्चर्या को भी कला के पारस से छूकर स्वर्ण बनाया। जब एक अपरिग्रही कला का आलम्बन लेता है, तो कला अपने उदात्त-व्यक्तित्व को बड़ी विलक्षण मुद्राओं में प्रस्तुत करती है। संगीत के इस संगीत .. 700 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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