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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस संसार रूपी वृक्ष की जड़ एक मिथ्यात्व ही है, उसको जड़ मूल से नष्ट करके ही मोक्ष का उपाय किया जा सकता है। मिथ्यात्व बैरी का तो अंश भी बुरा है । इसलिए सूक्ष्म मिथ्यात्व भी त्यागने योग्य ही है । यद्यपि जिनवाणी में तो मिथ्यात्व के अभाव का ही उपदेश है, तो भी जब तक जीव जिनवाणी के अभ्यास की या उसके अर्थ को समझने की पद्धति यथार्थ नहीं जानता, वह इसके मर्म को तो समझ नहीं पाता, उल्टा अपनी ही कल्पना से अन्यथा समझता रहता है, अतः मिथ्यात्व पुष्ट होता रहता है, छूट नहीं पाता है । प्रत्येक काम करने का और प्रत्येक बात समझने का अपना एक तरीका होता है । जब तक हम उस तरीके को न समझ लें, तब तक कोई भी काम अच्छी तरह से न तो कर ही सकते हैं और न कोई बात सही रूप में समझ ही सकते हैं। जिनवाणी में निश्चय - व्यवहार रूप वर्णन है । निश्चय व्यवहार का सही स्वरूप न समझ पाने के कारण सामान्यजन उसके मर्म को नहीं समझ पाते हैं । इसी समस्या का समाधान निकालने के लिए जिनवाणी को चार अनुयोगों की पद्धति में विभक्त करके लिखा गया है। प्रत्येक अनुयोग की अपनी-अपनी पद्धति अलग-अलग है। जब तक हम उस पद्धति को समझेंगे नहीं, तब तक जिनवाणी को पढ़ने पर भी उसके मर्म को नहीं जान पायेंगे । संक्षेप में, निश्चय, व्यवहार नयों का स्वरूप इस प्रकार है यथार्थ का नाम निश्चय है और उपचार का नाम व्यवहार अथवा इस प्रकार भी कह सकते हैं कि " एक द्रव्य के भाव को उस स्वरूप ही निरूपण करना निश्चय नय है और उस द्रव्य के भाव को अन्य द्रव्य के भाव स्वरूप वर्णन करना व्यवहार नय है । " व्यवहारनय स्वद्रव्य-परद्रव्य को, उनके भावों को व कारण-कार्यादिक को किसी को किसी में मिला कर निरूपण करता है। निश्चयनय उन्हीं को यथावत् निरूपण करता है, किसी को किसी में नहीं मिलाता है। जैसे- जिनवाणी में व्यवहार से नर-नारक आदि पर्याय को जीव कहा सो पर्याय ही को जीव नहीं मान लेना । नर-नारकादि पर्याय तो जीव पुद्गल के संयोग रूप है, वहाँ निश्चय से जीवद्रव्य भिन्न है, उसको ही जीव मानना चाहिए। जीव के संयोग से शरीरादि को भी उपचार से जीव कहा, सो कथन मात्र ही है, परमार्थ से शरीरादिक जीव नहीं होते । ऐसे ही अभेद आत्मा में ज्ञान - दर्शनादि भेद किए, सो आत्मा को भेद रूप ही नहीं मान लेना चाहिए; क्योंकि भेद तो समझाने के लिए किए हैं। निश्चय से आत्मा अभेद ही है, उसी को जीव - वस्तु मानना चाहिए । संज्ञा - संख्यादि से भेद कहे, सो कथन मात्र ही है, परमार्थ से भिन्न-भिन्न वस्तु नहीं । तीर्थंकर परम्परा, जिनागम और अनुयोग :: 63 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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