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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बहुत स्पष्ट लक्ष्य रहा है कि 'हम कम्प्यूटर को एक ऐसे ज्ञानस्रोत के रूप में विकसित करके रहेंगे/करेंगे, जिसमें अखिल ब्रह्माण्ड की सकल जानकारी इस रूप में रख दी जाएगी' और इसी दिशा में संगणक-वैज्ञानिक निरन्तर गतिशील रहे हैं तथा कुछ अंशों में लक्ष्य की प्राप्ति भी उन्होंने की है। इसीलिए कम्प्यूटरविज्ञान में डाटाबेस से ऊपर उठकर एक और महत्त्वपूर्ण धारणा Knowledge Base ज्ञानस्रोत की बहुत तेजी से नये रूप में उभरकर आयी है। अब प्रश्न उठता है कि इस लक्ष्य की परिकल्पना का विचार कम्प्यूटर के वैज्ञानिकों के मस्तिष्क में कैसे उभरा सच पूछिए तो यह बात बहुत स्पष्ट है कि पश्चिमी जगत् वैचारिक रूप में उतना समृद्ध नहीं है, जितना कि भारत । इसका कारण बहुत स्पष्ट है कि उनकी साहित्य-संस्कृति की परम्परा उतनी समृद्ध नहीं है, जितनी कि भारत की। एक और कारण है कि आज की तथाकथित अपने को आधुनिक कहलाने वाली पीढ़ी का सबसे बड़ा दोष है कि Computer Science के लोग जिससे लेते हैं, उसके प्रति मन से कृतज्ञता ज्ञापित भी नहीं करना चाहते हैं। इसीलिए सामान्यत: वे दातार को स्मरण ही नहीं करते हैं और यदि कहीं भूल से स्मरण करना पड़ जाए, तो केवल वाचिक-स्तर पर धन्यवाद देकर अलग हो जाते हैं। एक कारण और है कि हम तथाकथित आधुनिक कहे जाने वाले लोग पूर्वाग्रह के साथ परम्परा की सारी मान्यताओं को रूढ़ि या दकियानूसी मानकर चलते हैं, इसलिए उनमें यदि कोई बात महत्त्व की है भी, तो उसे महत्त्वपूर्ण मानने में अपनी हेठी मानते हैं। यही इन संगणक-वैज्ञानिकों के साथ हुआ; अन्यथा समवसरण में विद्यमान केवलज्ञानी जिनेन्द्र के स्वरूप की धारणा के ठीक समान लक्ष्य की धारणा बिना जैन परम्परा के नामोल्लेख के नहीं पनपती। खुले मस्तिष्क से यहाँ यह सम्भावना भी व्यक्त करते हैं कि जिन लोगों के वैचारिक सम्पर्क से संगणक-वैज्ञानिकों के मस्तिष्क में यह विचार विकसित हुआ कि उन्होंने अपने वैचारिक आदान-प्रदान में संगणक-वैज्ञानिकों को इस धारणा के साथ जैन परम्परा का बोध न कराया हो, यदि ऐसा है तो हजारों वर्षों से इस परम्परा को सुरक्षित रखने वाले शास्त्र हमारे सम्मुख हैं, आज ही हम उन्हें स्वीकार कर लें। यहीं मैं सम्प्रेषणविज्ञान (Communication Science) की बात और करना चाहता हूँ कि सम्प्रेषणविज्ञान की यह प्रमुख मान्यता है कि सम्प्रेषण अव्यवस्था में नहीं होता. सम्प्रेषण की अपनी व्यवस्था होती है, या सम्प्रेषण के लिए व्यवस्था आवश्यक है। यह व्यवस्था होती है ग्रहीता-सापेक्ष्य, "Whom to Address" सापेक्ष्य। मान लीजिए कि आपको कोई बात पहुँचानी है उन दश लोगों तक, जो भिन्न-भिन्न प्रमुख भाषाओं के जानकार हैं, तो क्या उन्हें एक-साथ एक-कक्ष में सम्बोधा जा सकेगा? ... नहीं, यह सम्भव नहीं। भिन्न-भिन्न प्रमुख भाषाओं के हमें भिन्न-भिन्न वर्ग बनाने होंगे और तब हम सम्बोधन का कार्य प्रारम्भ करेंगे। यहीं यह भी ज्ञातव्य है कि प्रत्येक वर्ग के ग्रहीताओं 666 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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