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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार्य वराहमिहिर के सिद्धान्तों को मनन करने से ज्ञात होता है कि शरीरचक्र ही ग्रह-कक्षावृत है। इस कक्षावृत के द्वादश भाव मस्तक, मुख, वक्षस्थल, हृदय, उदर, कटि, वस्ति, लिंग, जंघा, घुटना, पिण्डली और पैर क्रमशः मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ और मीन संज्ञक हैं। इन बारह राशियों में भ्रमण करनेवाले ग्रहों में आत्मा रवि, मन चन्द्रमा, धैर्य मंगल, वाणी बुध, विवेक गुरु, वीर्य शुक्र और संवेदन शनि है। तात्पर्य यह है कि वराहमिहिराचार्य ने सात ग्रह और बारह राशियों की स्थिति देहधारी प्राणी के भीतर ही बतलायी है। इस शरीर स्थित सौरचक्र का भ्रमण आकाशस्थित सौरमण्डल के आधार पर ही होता है। ज्योतिषशास्त्र व्यक्त सौरजगत् के ग्रहों की स्थिति, गति आदि को प्रकट करता है, इसलिए इस शास्त्र द्वारा निरूपित फलों का मानव-जीवन से सम्बन्ध है। प्राचीन भारतीय आचार्यों ने प्रयोगशाला के अभाव में अपने दिव्य योगबल द्वारा आभ्यन्तर सौरजगत् का पूर्ण दर्शन कर आकाशमण्डलीय सौर-जगत् के नियम निर्धारित किये थे, उन्होंने अपने शरीरस्थ सूर्य की गति निश्चित की थी। इसी कारण ज्योतिष के फलाफल का विवेचन आज भी विज्ञान-सम्मत माना जाता है। ज्योतिष और जैन परम्परा __ जैन परम्परा बतलाती है कि आज से लाखों वर्ष पूर्व कर्मभूमि के प्रारम्भ में प्रथम कुलकर प्रतिश्रुति के समय में जब मनुष्य को सर्वप्रथम सूर्य और चन्द्रमा दिखलाई पड़े, तो वे इनसे सशंकित हुए और अपनी उत्कण्ठा शान्त करने के लिए उक्त प्रतिश्रुति नामक कुलकर मनु के पास गये। उक्त मनु ने ही सौर-जगत् सम्बन्धी सारी जानकारियाँ बतलायीं और ये ही सौर-जगत् की ज्ञातव्य बातें ज्योतिषशास्त्र के नाम से प्रसिद्ध हुईं। मूलभूत सौर-जगत् के सिद्धान्तों के आधार पर गणित और फलित ज्योतिष का विकास प्रतिश्रुति मनु के सहस्रों वर्ष के बाद हुआ तथा ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति के आधार पर भावी फलाफलों का निरूपण भी उसी समय से होने लगा। जैन ज्योतिष का विकास ___ जैनागम की दृष्टि से ज्योतिष शास्त्र का विकास विद्यानुवादांग और परिक्रमों से हुआ है। समस्त गणित-सिद्धान्त ज्योतिष परिक्रमों में अंकित है और अष्टांगनिमित्त का विवेचन विद्यानुवादांग में किया है। षट्खण्डागम धवला टीका में पन्द्रह प्रकार के मुहूर्त आये हैं। मुहूर्तों की नामावली वीरसेन स्वामी की अपनी नहीं है, किन्तु पूर्व परम्परा से श्लोकों को उन्होंने उद्धृत ज्योतिष : स्वरूप और विकास :: 655 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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