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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पृष्ठ 39 पर इसका उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त श्री विजयण्ण उपाध्याय द्वारा रचित सारसंग्रह (अपरनाम) अकलंक संहिता में पृष्ठ 33 से गोम्मटदेव मुनि के 'मेरुदण्ड तन्त्र' के नाड़ी परीक्षा, ज्वर निदान आदि अनेक प्रकरण संकलित हैं। इससे स्पष्ट है कि गोम्मटदेव मुनि द्वारा रचित यह ग्रन्थ पूर्व में विद्यमान था। कल्याणकारक और उसका कर्ता उग्रादित्याचार्य दक्षिण के जैनाचार्यों द्वारा रचित 'आयुर्वेद' या 'प्राणावाय' के उपलब्ध ग्रन्थों में उग्रादित्याचार्य द्वारा रचित 'कल्याणकारक' सबसे प्राचीन, मुख्य, सम्पूर्ण और महत्त्वपूर्ण है। प्राणावाय की प्राचीन जैन परम्परा का दिग्दर्शन हमें एकमात्र इसी ग्रन्थ से प्राप्त होता है। यही नहीं, इसका अन्य दृष्टि से भी बहुत महत्त्व है। ईसवी आठवीं शताब्दी में प्रचलित चिकित्सा-प्रयोगों और रसौषधियों से भिन्न और सर्वथा नवीन प्रयोग हमें इस ग्रन्थ में देखने को मिलते हैं। ___ सबसे पहले 1922 में नरसिंहाचार्य ने अपनी पुरतत्त्व सम्बन्धी रिपोर्ट में इस ग्रन्थ के महत्त्व और विषयवस्तु के वैशिष्ट्य पर निम्नांकित पंक्तियों में प्रकाश डाला था, तब से अब तक इस पर पर्याप्त ऊहापोह किया गया है। "Another manuscirt of some interest is the medical work 'kalyanakaraka of Ugraditya, a jaina author, who was a contemporary of the Rastrakuta King Amoghvarsha I and of the eastern Chalulya king kali vishnuvardhan V. The work opens with the state meat that the science of medicine is divided into two parts, namely prevention and cure, and gives at the end a long discourse in sanskrit prose on the uselessness of a flesh diet. said to have been delivered by the author at the court of Amoghvarsha, where many learned men and doctors had assembled." ___ (Mysore Arechaeological Report, 1922 page 23) ___ अर्थात् “अन्य महत्त्वपूर्ण हस्तलिखित ग्रन्थ उग्रादित्य का चिकित्साशास्त्र पर 'कल्याणकारक' नामक रचना है। यह विद्वान् जैन लेखक और राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष प्रथम तथा पूर्वी चालुक्य राजा कलि विष्णुवर्धन पंचम का समकालीन था। ग्रन्थ के प्रारम्भ में कहा गया है कि चिकित्सा विज्ञान दो भागों में बँटा हुआ है, जिनके नाम हैं'प्रतिबन्धक चिकित्सा' और 'प्रतिकारात्मक चिकित्सा' तथा इस ग्रन्थ के अन्त में संस्कृत गद्य में मांसाहार की निरर्थकता के सम्बन्ध में विस्तृत सम्भाषण दिया गया है जो बताया जाता है कि अमोघवर्ष की राजसभा में लेखक ने प्रस्तुत किया था, जहाँ पर अनेक विद्वान और चिकित्सक एकत्रित थे। आयुर्वेद (प्राणावाय) की परम्परा :: 635 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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