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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पर विचार अपेक्षित है। इन चार अनुयोगों के अन्तर्गत तत्तत् विषयक ग्रन्थों का परिगणन किया गया है, किन्तु जैनाचार्यों ने इसका स्पष्ट उल्लेख कहीं नहीं किया कि प्राणावाय पूर्व (आयुर्वेद) विषय का अवलम्बन कर रचित ग्रन्थों का परिगणन किस अनुयोग के अन्तर्गत किया जाये?.... जबकि स्वामी समन्तभद्र, पूज्यपाद आदि मनीषी और उद्भट जैनाचार्यों के द्वारा आयुर्वेद विषय को अधिकृत कर ग्रन्थ रचना की गयी है। द्वादशांगान्तर्गत प्राणावाय पूर्व का परिगणन और इस विषय को अधिकृत कर जैन विद्वानों द्वारा ग्रन्थ-रचना से इस विषय की प्रामाणिकता असन्दिग्ध रूप से प्रतिपादित होती है। ऐसी स्थिति में किसी अनुयोग के अन्तर्गत इसका परिगणन नहीं किया जाना कुछ विस्मयकारक ही माना जा सकता है। इस विषय पर जब गम्भीरतापूर्वक अध्ययन और मनन किया गया, तो सहज ही यह तथ्य उद्घाटित हुआ कि जैन मुनियों, विद्वानों एवं मनीषी आचार्यों ने प्राणावाय पूर्व (आयुर्वेद) पर आधारित जिन ग्रन्थों का प्रणयन किया है, उनमें से अनेक ग्रन्थों में सर्वांग पूर्ण आयुर्वेद का प्रतिपादन है। उन ग्रन्थों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि आयुर्वेद मात्र चिकित्सा-शास्त्र ही नहीं है, अपितु इसमें आहारगत पथ्य व्यवस्था तथा सामान्य आहार-विहार के नियमों का व्यापक रूप से प्रतिपादन है। किस प्रकार के आहार-विहार का प्रभाव मनुष्य के स्वास्थ्य पर कैसे पड़ता है और किस प्रकृति वाले मनुष्य के लिए कौन-सा आहार-विहार हितकर और कौन-सा अहितकर है? इसकी विस्तृत विवक्षा की गयी है। मनुष्य को प्रातः ब्राह्ममुहूर्त में उठकर कौन-कौन सी क्रियाएँ दैनिक रूप से करना चाहिए, अर्चन, पूजन, वन्दन, आहारचर्या, विश्राम आदि का विवेचन विस्तारपूर्वक दिनचर्या प्रकरण के अन्तर्गत किया गया है। इसी प्रकार रात्रिचर्या के अन्तर्गत शयन आदि निशाकालीन चर्या के नियम बतलाये गये हैं कि स्वस्थ और रोगी व्यक्ति को कब-कब किस प्रकार और कितनी निद्रा लेनी चाहिए? तथा दिन में सोने से क्या हानि या गुण होते हैं? इत्यादि विषयों पर युक्तियुक्त रूप से विचार किया गया है। ___ इसके अतिरिक्त मनुष्य के आचरण की शुद्धि पर विशेष जोर दिया गया है और इसके लिए सात्विक आहार-सेवन का निर्देश किया गया है। आचरण की शुद्धता हेतु दूषित मनोभावों के परित्याग का निर्देश करते हुए संयमपूर्वक जीवन-यापन, अहिंसा का परिपालन आयुर्वेद शास्त्र करता है। श्री उग्रादित्याचार्य द्वारा प्रणीत कल्याणकारक ग्रन्थ जो सम्पूर्णतः आयुर्वेद विषय को ही उल्लिखित करता है, में मद्य, मांस, मधु का सेवन वर्जित करते हुए किसी भी रूप में इनके सेवन का उल्लेख नहीं है। यह इस ग्रन्थ की मौलिक विशेषता है। यह ग्रन्थ यथार्थतः जैन दृष्टिकोण और जिन-मार्ग का अनुसरण करते हुए रचा गया है। मनुष्य के आचरण-सम्बन्धी अन्यान्य विषय इसमें आयुर्वेद (प्राणावाय) की परम्परा :: 625 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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