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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org इस सम्बन्ध में डॉ. भोगीलाल सांडेसरा ने लिखा है कि 'यह भी असम्भव प्रतीत नहीं होता कि वह ब्राह्मण ही था; क्योंकि जैन साधु होने के बावजूद उसने अपने 'बालभारत' ग्रन्थ के प्रत्येक सर्ग के प्रारम्भ में व्यास की और उसी ग्रन्थ की प्रशस्ति में वायडों के देव वायु (पवनदेव) की स्तुति की है । 26 अमरचन्द्रसूरि अपनी काव्य-कला के कारण अनेक उपाधियों से विभूषित थे। उनकी एक सुप्रसिद्ध कृति 'पद्मानन्द' महाकाव्य है, जिसमें आद्य तीर्थंकर ऋषभदेव का चरित्रचित्रण किया गया है । इसका समय विक्रम की तेरहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध तथा चौदहवीं शताब्दी का प्रथम चरण मानना उपयुक्त प्रतीत होता है। इनकी रचनाओं पर दृष्टिपात करने से ज्ञात होता है कि अमरचन्द्रसूरि काव्य, व्याकरण, छन्द, अलंकार और कला आदि विविध विषयों के प्रौढ़ विद्वान् थे । इनका आशुकवित्व इनकी कविता - चातुरी का द्योतक है। डॉ. श्यामसुन्दर दीक्षित और डॉ. गुलाबचन्द्र चौधरी आदि विद्वानों ने इनके ग्रन्थों की संख्या 13 स्वीकार की है, जिनके नाम निम्न प्रकार हैं- 1. बालभारत, 2. पद्मानन्दमहाकाव्य, 3. काव्यकल्पलता - वृत्ति, 4. काव्यकल्पलता या कविशिक्षा, 5. चतुर्विंशतिजिनेन्द्रसंक्षिप्तचरितानि, 6. सुकृत संकीर्तन के प्रत्येक सर्ग के चार श्लोक, 7. स्यादिशब्दसमुच्चय (व्याकरण), 8. काव्यकल्पलतापरिमल, 9. छन्दोरत्नावली, 10. अलंकार - बोध, 11. कलाकलाप, 12. काव्यकल्पलतामंजरी और 13. मुक्तावली । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काव्यकल्पलता-वृत्ति : आचार्य अमरचन्द्रसूरि ने अपने कलागुरु अरिसिंहकृत कवितारहस्य को ध्यान में रखकर कुछ अरिसिंह रचित सूत्रों और कुछ स्वरचित सूत्रों को लेकर काव्यकल्पलता नामक ग्रन्थ की रचना की है । अतः मूल सूत्रों का नाम काव्यकल्पलता है, पुनः उन सूत्रों पर अमरचन्द्रसूरि ने कविशिक्षा नामक वृत्ति लिखी है, जो अब काव्यकल्पलता वृत्ति के नाम से प्रसिद्ध है । I 610 :: जैनधर्म परिचय अमरचन्द्रसूरि के परवर्ती आचार्य देवेश्वर ( 14वीं शताब्दी का आरम्भ) ने अपने ग्रन्थ कवि-कल्पलता के लिए अमरचन्द्रसूरि की काव्यकल्पलता को ही आदर्श माना है तथा उसमें से बहुत से नियमों तथा लक्षणों का अक्षरशः ग्रहण किया गया है। कालान्तर में काव्यकल्पलता के ऊपर अनेक टीकाएँ रची गयी हैं। 28 इससे यह सिद्ध होता है कि विद्वत्समाज में भी काव्यकल्पलता को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था । इस ग्रन्थ में अमरचन्द्रसूरि ने कवि - पद के अभिलाषियों को प्रारम्भ होने वाली कठिनाईयों से बचने के लिए कवि - शिक्षा पर विस्तृत प्रकाश डाला है। ये छन्द को काव्य का मूल मानते हैं । अतः छन्द - रचना की प्रक्रिया का विभिन्न प्रकार से विवेचन है तथा छन्दों में प्रयुक्त होने वाले अनेक प्रकार के सहस्रों शब्दों का संकलन किया For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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