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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जो प्रथम लहर उत्पन्न होती है, वह अपनी गति/शक्ति से पास के जल को क्रमशः तरंगित करती जाती है और यह वीचि -तरंग न्याय किसी न किसी रूप में बहुत दूर तक प्रारम्भ रहता है। शब्द पुद्गल अपने उत्पत्ति प्रदेश से उछलकर दशों दिशाओं में जाते हुए उत्कृष्ट रूप से लोक के अन्त भाग तक जाते हैं- सब नहीं जाते हैं, थोड़े ही जाते हैं। यथा- शब्द पर्याय से परिणत हुए प्रदेश में अनन्त पुद्गल अवस्थित रहते हैं । (उससे लगे हुए) दूसरे आकाश प्रदेश में उससे अनन्त - गुणे - हीन पुद्गल अवस्थित रहते हैं। तीसरे आकाश प्रदेश में उससे लगे हुए अनन्त - गुणे - हीन पुद्गल अवस्थित रहते हैं। चौथे आकाश प्रदेश में उससे अनन्त - गुणे - हीन पुद्गल अवस्थित रहते हैं। इस तरह वे अनन्तरोपनिध की अपेक्षा वात-वलय पर्यन्त सब दिशाओं में उत्तरोत्तर एक-एक प्रदेश के प्रति अनन्तगुणे--हीन होते हुए जाते हैं। ये सब शब्द - पुद्गल एक समय में ही लोक के अन्त तक जाते हैं, ऐसा कोई नियम नहीं है; किन्तु ऐसा उपदेश है कि कितने ही शब्द पुद्गल कम से कम दो समय र अन्तर्मुहूर्त काल के द्वारा लोक के अन्त को प्राप्त होते हैं। इस तरह प्रत्येक समय में शब्द पर्याय से परिणत हुए पुद्गलों के गमन और अवस्थान का कथन करना चाहिए । हम जो शब्द सुनते हैं, वह वक्ता का मूल शब्द नहीं सुन पाते । वक्ता की शब्दश्रेणियाँ आकाश-प्रदेश की पंक्तियों में फैलती हैं। ये श्रेणियाँ वक्ता के पूर्व-पश्चिम, उत्तर - दक्षिण, ऊँची और नीची, छहों दिशाओं में हैं। हम शब्द की सम-श्रेणी में होते हैं, तो मिश्र शब्द को सुनते हैं अर्थात् वक्ता द्वारा उच्चरित शब्द-द्रव्यों और उनके द्वारा वासित शब्द - द्रव्यों को सुनते हैं। यदि हम विश्रेणी (विदिशा) में होते हैं, तो केवल वासित शब्द ही सुन पाते हैं। (प्रज्ञापन, पद 11) मनुष्य भाषागत सम श्रेणिरूप शब्द को यदि सुनता है, तो मिश्र को ही सुनता है और उच्छ्रेणि को प्राप्त हुए शब्द को यदि सुनता है, तो नियम से पर- घात के द्वारा सुनता है। समश्रेणि द्वारा आते हुए शब्द पुद्गलों को पर घात और अपर घात रूप से सुनता है । यथा - यदि पर- घात नहीं है, तो बाण के समान ऋजुमति से कर्णछिद्र में प्रविष्ट हुए शब्दपुद्गलों को सुनता है, क्योंकि समश्रेणि से कर्णछिद्र में प्रविष्ट हुए शब्द - - पुद्गलों का श्रवण उपलब्ध होता है। उच्छ्रेणि को प्राप्त हुए शब्द पुनः शराघात के द्वारा ही सुने जाते हैं, अन्यथा उनका सुनना नहीं बन सकता है। जैनदर्शन में भाषात्मक शब्द और अभाषात्मक शब्द के भेद से शब्द के प्रथमतः दो भेद किये गये हैं। अभाषात्मक शब्द पुनः प्रायोगिक और वैस्रसिक के भेद से दो प्रकार का माना गया है। अभाषात्मक प्रायोगिक प्रकार का शब्द भी तत, वितत, घन और सौषिर के भेद से फिर चार प्रकार का होता है। 566 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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