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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टकराता भी है, क्योंकि कुए में आवाज करने से प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है। आज के विज्ञान ने अपने रेडियो, टी.वी. और ग्रामोफोन आदि यन्त्रों से शब्द को पकड़कर और अपने अभीप्सित स्थान में भेजकर उसकी पौद्गलिकता प्रयोग से सिद्ध कर दी है। यह शब्द पुद्गल के द्वारा ग्रहण किया जाता है, पुद्गल से ही धारण किया जाता है, पुद्गलों से रुकता है, पुद्गलों को रोकता है, पुद्गल कान आदि के पर्दो को फाडता है, पौदगलिक वातावरण में अनुकम्पन पैदा करता है, अतः शब्द पौद्गलिक है। स्कन्धों के परस्पर संयोग, संघर्षण और विभाग से शब्द उत्पन्न होता है, जिह्वा और तालु आदि के संयोग से नानाप्रकार के भाषात्मक प्रायोगिक शब्द उत्पन्न होते हैं। इसके उत्पादक उत्पादन कारण और स्थूल निमित्त कारण दोनों ही पौद्गलिक हैं। इस प्रकार विज्ञान भी शब्द को आकाश का गुण नहीं मानता। अतः शब्द मूर्तिक और उत्पाद्य है। ___ शब्द को द्रव्य मानने के हेतुओं को स्पष्ट करते हुए आचार्य प्रभाचन्द्र कहते हैं कि चूँकि तीव्र शब्द के श्रवण से कान के पर्दे का फटना देखा जाता है। इससे शब्द का एक स्पर्श गुण वाला द्रव्य होना सिद्ध होता है। विदारण का कारण अभिघात है और वह किसी स्पर्शवान् द्रव्य का ही हो सकता है। शब्द सहचरित वायु के अभिघात से वाधिर्य की उत्पत्ति उन्हें नहीं जंचती। इसी प्रकार शब्द में अल्पत्व, महत्त्व परिमाण भी देखने में आता है। यथा 'अल्पोशब्दः', 'महान् शब्दः' तथा 'एकः शब्दः', 'द्वौ शब्दौ' आदि प्रयोगों में शब्द में संख्या-गुण उपलब्ध होता है। प्रतिकूल दिशा से आने वाली वायु द्वारा शब्द का अभिघात देखने में आता है। इससे शब्द में वायु-संयोग गुण की उपलब्धि प्रमाणित होती है। अतः इन गुणों का आश्रय होने से शब्द द्रव्य-रूप है। ____ गुणाश्रय होने के अतिरिक्त क्रियाश्रय होने से भी शब्द द्रव्यात्मक है। वैशेषिक शब्द को गुण मानने के कारण उसमें क्रिया को स्वीकार नहीं करते। अत: दूरस्थ शब्द के ग्रहणार्थ उन्हें वीची-तरंग न्याय से अथवा कदम्ब-मुकुल न्याय से शब्द के शब्दान्तर की उत्पत्ति माननी पड़ती है, परन्तु जैनों को शब्द को द्रव्य मानने के कारण उसमें क्रिया मानना सुतरां अभीष्ट है। इससे जैनों ने नैयायिकों के शब्दज-शब्द के सिद्धान्त को अनावश्यक कहा है। जैनदर्शन में अन्य द्रव्यों के समान ही शब्द को भी सामान्य विशेषात्मक माना गया है। सभी शब्दों में अनुगत रहने वाला उसका रूप शब्दत्व सामान्यात्मक है। शंख शब्द, घंटा शब्द, पशु शब्द, नारी शब्द, उदात्त, अनुदात्त, स्वरित आदि उसके विशेषात्मक रूप हैं। शब्द की यह सामान्य-विशेषात्मकता जैनदर्शन के अनुसार उसकी पौद्गलिकता का ही प्रमाण है। शब्द केवल शक्ति नहीं है, किन्तु शक्तिमान पुद्गलद्रव्य स्कन्ध है, जो वायु द्वारा 564 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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