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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir का (3) अप्रतिष्ठान इन्द्रक बिल-- ये तीनों एक-एक लाख योजन विस्तृत हैं। इन्हें 'तीन लखूरे' कहा जाता है।133 विमानों का आधार– सौधर्मयुगल के विमानों का आधार जल है। सानत्कुमार युगल वायु पर आधारित है। ब्रह्मादि 8 स्वर्गों के विमानों का आधार जल और वाय दोनों हैं। आनत स्वर्ग से ऊपर के सभी विमान आकाश पर आधारित हैं। वस्तुतः देवविमान नरकबिलों की तरह किसी पृथ्वी पर न होकर अधर में हैं। वहाँ के पुद्गल स्कन्ध ही जलादिरूप से परिणत हुए हैं।134 विमानों का वर्ण- प्रथम स्वर्ग-युगल के विमान कृष्ण, नील, रक्त, पीत और शुक्ल वर्ण के हैं। सानत्कुमार-माहेन्द्र स्वर्गों के विमान नील, रक्त, पीत, और शुक्लवर्ण हैं। ब्रह्मादि 4 स्वर्गों के विमान रक्त, पीत और शुक्ल वर्ण हैं। शुक्रादि 8 स्वर्गों के विमान पीले और सफेद हैं। इनके ऊपर के सभी विमान शुक्लवर्ण हैं। सर्वार्थसिद्धिविमान परम शुक्लवर्ण का है।35 देवों की उत्पत्ति और शरीर की दिव्यता- पूर्वांचल में सूर्योदय की भाँति देव सुख-रूप उपपाद शय्या पर जनमते हैं। जनमते ही एक अन्तर्मुहूर्त मे छहों पर्याप्तियाँ पूर्ण कर दिव्य वैक्रियिक शरीर धारण कर लेते हैं। उनका शरीर सुख-रूप सुगन्धित दिव्य स्कन्धों से बना होता है। उसमें नख, केश, रोम, चमड़ा, मल-मूत्र, रक्त-मांस आदि सप्त धातुएँ नहीं होतीं। पुण्योदय से उन्हें रोगादि भी नहीं होते। वे 16 वर्षीय कुमार की तरह सदा दिखते हैं। वे मानसिक आहार करते हैं, पर उन्हें नीहार नहीं होता। इनका शरीर निगोदिया जीवों से रहित प्रत्येक शरीर होता है, क्योंकि इनका निगोद जीवों से सम्बन्ध नहीं होता।136 देवियों की उत्पत्ति- सभी कल्पवासी वैमानिक देवों की देवियाँ सौधर्म-ईशान स्वर्गों में ही उत्पन्न होती हैं। ऊपर के स्वर्गों के देव अपनी-अपनी नियोगिनी देवियों की उत्पत्ति को अवधिज्ञान से जानकर मूलशरीर सहित अपने विमानों में ले जाते हैं। देवों के शरीर की ऊँचाई-प्रथम युगल के देव सात हाथ ऊँचे होते हैं। ऊपर के स्वर्गों के देवों के शरीर की ऊँचाई क्रमशः घटती जाती है। ऊपर अनुत्तर विमानों में मात्र एक हाथ ही ऊँचाई रह जाती है। भवनवासी देवों में असुरकुमार 25 धनुष और शेष देव 10 धनुष ऊँचे होते हैं। व्यन्तर देव 10 धनुष और ज्योतिषी देव सात धनुष ऊँचे होते हैं। देव विक्रिया द्वारा अपने शरीर को छोटा या बड़ा अनेक रूपों में बदल सकते हैं। अतः विक्रिया-निर्मित शरीरों की ऊँचाई अनेक प्रकार की होती है। __ उच्छ्वास और आहार-ग्रहण- आयु की स्थिति प्रमाण के अनुसार देवों के उच्छ्वास और आहार-ग्रहण की अवधि भिन्न-भिन्न होती है। एक सागर की आयु वाले देव एक पक्ष के अन्तर से श्वास लेते हैं और एक हजार वर्ष के अन्तर से मानसिक आहार 548 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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