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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देवगति नामकर्म का उदय होने पर जो नाना प्रकार की बाह्य विभूति से युक्त द्वीपसमुद्र आदि अनेक स्थानों में क्रीडा करते हैं, वे देव कहलाते हैं। वे चार निकायसमूहविशेष/जातिवाले हैं-भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक। इनमें भवनवासियों के 10, व्यन्तरों के 8, ज्योतिष्क देवों के 5 तथा 16 स्वर्गों तक के कल्पवासी देवों के 12 भेद होते हैं।14 देवों के उक्त चार निकायों में दस-दस प्रकार के देव होते हैं-(1) इन्द्र, (1) सामानिक, (3) त्रायिंस्त्रश, (4) पारिषद्, (5) आत्मरक्ष, (6) लोकपाल, (7) अनीक, (8) प्रकीर्णक, (9) आभियोग्य और (10) किल्विषिक। इनमें से त्रायिंस्त्रश और लोकपाल-ये दो भेद व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में नहीं होते। (1) अन्य देवों में नहीं पाया जाने वाला अणिमा आदि ऋद्धि-रूप ऐश्वर्य जिनके पाया जाता है, वह 'इन्द्र' होता है। (2) स्थान, आय, शक्ति, परिवार और भोगोपभोग आदि में जो इन्द्रों के समान होते हैं, परन्तु इन्द्रों के समान आज्ञा तथा ऐश्वर्य नहीं होता, वे 'सामानिक' देव होते हैं। ये पिता, गुरु, उपाध्याय आदि के समान आदरणीय होते हैं। (3) मन्त्री तथा पुरोहित के समान हित चाहने वाले देव ‘त्रायिंस्त्रश' कहलाते हैं, ये संख्या में तेतीस ही होते हैं। (4) सभ्य, सभासद, मित्र और नर्तकाचार्य के समान देव ‘पारिषद्' कहलाते हैं। ये विनोदशील होते हैं। (5) कवच, शस्त्रधारीअंगरक्षकों की भाँति पीछे खड़े रहने वाले देव 'आत्मरक्ष' होते हैं। यद्यपि इन्द्र को कोई भय नहीं होता, फिर भी विभूति दर्शाने तथा दूसरों पर प्रभाव डालने के लिए ये देव होते हैं। (6) लोकपाल अर्थरक्षक के समान लोक का पालन व रक्षण करते हैं। (7) पदाति आदि सात प्रकार की सेना के देव 'अनीक' कहलाते हैं। (8) नगरवासी तथा प्रान्तवासी जन के समान 'प्रकीर्णक' देव होते हैं। (9) आभियोग्य देव दासोंजैसे होते हैं, जो विमान आदि खींचने के लिए वाहकरूप से परिणत हो जाते हैं। (10) पापों की बहुलता वाले पापशील अन्तवासी की तरह सीमा के पास रहने वाले देव 'किल्विषिक' कहलाते हैं।15 भवनवासी- भवनों में रहने का स्वभाव होने से ये 'भवनवासी' कहलाते हैं।16 ये 10 प्रकार के हैं-(1) असुरकुमार, (2) नागकुमार, (3) विद्युत्कुमार, (4) सुपर्णकुमार, (5) अग्निकुमार, (6) वातकुमार, (7) स्तनित कुमार, (8) उदधिकुमार, (9) द्वीपकुमार, (10) दिक्कुमार।” यद्यपि इन-सब का वय और स्वभाव अवस्थित है, तो भी इनकी वेश-भूषा, शस्त्र, यान, वाहन और क्रीड़ा आदि कुमारों के समान होती है। इस कारण ये सभी 'कुमार' कहलाते हैं।18 रत्नप्रभा पृथ्वी के पंकबहुल भाग में असुरकुमारों के भवन हैं और खरभाग में शेष 9 प्रकार के भवनवासियों के भवन हैं। भवनवासियों के कुल 7 करोड़ 72 लाख भवन हैं। ये सभी चौकोर सुगन्धित, रमणीक उद्योतरूप तथा इन्द्रियों को सुखदायी हैं। इनमें इतने भूगोल :: 543 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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