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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धूमप्रभा, तमप्रभा और महातमप्रभा नाम की यथार्थ नामों वाली सात नरकभूमियाँ हैं। इनकी प्रभा इनके नामों जैसी ही है। इनके रौढिक नाम क्रमशः, धम्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मधवी और माधवी हैं। नारकी जीवों के निवास का आधार होने से ये 'नरक या नरक भूमियाँ' कहलाती हैं। ("अहलोए होंति णेरइया" ।n46।। कार्तिकेयानुप्रेक्षा) __ ये सातों नरकभूमियाँ उत्तरोत्तर नीचे-नीचे एक के ऊपर एक रूप से अवस्थित हैं, तिरछे रूप से नहीं और आपस में भिड़कर भी स्थित नहीं हैं, किन्तु एक से दूसरी भूमि के बीच असंख्य योजनों का अन्तर है। ये क्रमश: 180000, 32000, 28000, 24000, 20000, 16000 और 8000 योजन मोटी हैं। इनमें क्रमश: 30 लाख, 25 लाख, 15 लाख, 10 लाख, 3 लाख, 5 कम एक लाख और अन्तिम महातमप्रभा में केवल 5 ही नरक-बिल हैं। पापी जीवों के निवासस्थान बिल कहलाते हैं। ये बिल कुछ गोल, कुछ तिकोन और कुछ अनिश्चित-आकार वाले हैं। बिलों की दीवारें वज्र के समान सघन हैं। ये अत्यन्त दुःखदायी तथा अत्यधिक दुर्गन्धित सामग्री से भरे हैं। इनमें सदा ही अन्धकार छाया रहता है। चित्राभूमि- अधोलोक में सब से ऊपर चित्राभूमि है। इस पर मध्यलोक की रचना है। यह चित्र-विचित्र वर्णों वाले खनिजों और धातुओं से भरी है। इसी से यह सार्थक। यथार्थ नामवाली 'चित्रा' कही जाती है। यह 1 लाख 80 हजार योजन मोटी है। इसके तीन भाग हैं-1. खरभाग, 2. पंकभाग, 3. अब्बहुल। खरभाग 16 हजार योजन, पंकभाग 84 हजार योजन तथा अब्बहुलभाग 80 हजार योजन मोटा है। खरभाग के एक-एक हजार मोटे 16 भाग हैं, जो लम्बाई-चौड़ाई में लोक के बराबर विस्तृत हैं।" खरभाग में असुरकुमारों को छोड़ शेष 9 प्रकार के भवनवासी देव तथा राक्षसों को छोड़ शेष सात प्रकार के व्यन्तर-देवों के आवास हैं। पंकभाग में असुरकुमार और राक्षस देव रहते हैं। तीसरे अब्बहुल भाग में प्रथम नरक के नारकियों के 30 लाख नरक-बिल हैं। अब्बहुल भाग और शेष नरक भूमियों की जितनी-जितनी मोटाई है, उसमें एक-एक हजार योजन भूमि छोड़कर बाकी मध्यभाग में विविध आकारों वाले नरक-बिल हैं। ये जमीन के भीतर कुएँ के समान पोले हैं। इनमें नारकी जीव अपनी आयु के अन्तिम समय तक नाना प्रकार के दुःख भोगते हुए रहते हैं। उपपाद/जन्मस्थान-पापी जीव नरकायु का बन्धकर नरकों में जन्म लेते हैं। इनके उपपादस्थान नरकबिलों के ऊपरी भाग में ऊँट आदि के मुख के समान सकरे होते हैं। जन्म लेकर अन्तर्मुहूर्त में सभी पर्याप्तियाँ पूर्णकर उपपाद स्थान से च्युत होकर नरकभूमियों के तीक्ष्ण शस्त्रों पर गिरकर गेद की भाँति बार-बार ऊपर उछलते और नीचे ...13. योजन ऊपर उछलते गिरते हैं और घोर वेदना का अनुभव करते हैं। पहले नरक में हैं। आगे यह ऊँचाई दूनी-दूनी होती जाती है। भूगोल :: 515 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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