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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परन्तु दोनों में मतभेद होने के कारण अन्तिम निर्णय नहीं हो सका । अन्ततः देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में महावीर संवत् 980 या 993 (453 या 466 ई.) में वल्लभी में वाचना की गयी और श्वेताम्बर आगम को अन्तिम रूप दिया गया, जैसाकि अब उपलब्ध माना जाता है । दिगम्बर आम्नाय में ऐसी किसी परम्परा का उल्लेख नहीं मिलता है, जब महावीर के बाद उनके उपदेशों के संकलन के लिए कोई सम्मेलन किया गया हो । खारवेल के हाथीगुम्फा शिलालेख से यह विदित होता है कि महावीर निर्वाण संवत् 355 अर्थात् ईस्वी पूर्व 172 में एक सम्मेलन द्वादश- अंगों के वाचन के लिए उड़ीसा प्रदेश के भुवनेश्वर जिले में स्थित कुमारी पर्वत (उदयगिरि) पर किया गया था। यदि संयोगवश इस अभिलेख की जानकारी न होती, तो यह महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना उपेक्षित ही नहीं, वरन् विस्मृत भी रह जाती। इस वाचना का कोई स्थायी परिणाम नहीं निकला प्रतीत होता, क्योंकि कदाचित् उस समय दिगम्बर और श्वेताम्बर विभेद के पोषक आचार्य उस सम्मेलन में उपस्थित रहे होंगे। अभिलेख में किसी भी आचार्य का नाम नहीं दिया गया है । यद्यपि सभी दिशाओं से श्रमणों को उसमें आमन्त्रित किया गया था ( सुकत - समण- - सुविहितानं च सवदिसानं ञनिनं - तपसि - इसिनं - संघयनं) । मथुरा में कंकाली टीला से प्राप्त पुस्तक - धारिणी सरस्वती की लेखांकित मूर्ति प्राप्त हुई है। इस मूर्ति पर वर्ष 54 का लेख है । वर्ष 54 को 78 ईस्वी के शक् संवत् से समीकृत किया जाता है और इसका समय 132 ईस्वी माना जाता है । सरस्वती की यह मूर्ति गोदुहिका आसन में है । श्वेताम्बर परम्परा में यह मान्यता है कि भगवान महावीर को केवलज्ञान की प्राप्ति इसी आसन में हुई थी । यह मूर्ति यह इंगित करती है कि उस समय तक श्वेताम्बर परम्परा की यह मान्यता प्रचलित हो गयी थी । सरस्वती के हाथ में पुस्तक से यह इंगित होता है कि ईस्वी सन् के प्रारम्भ में ही जैनों में ग्रन्थों लिपिकरण की परम्परा प्रारम्भ हो गयी थी । इससे यह भी सूचित होता है कि द्वादशांग श्रुत की वाचना हेतु जो सम्मेलन ई. पू. 172 में खारवेल ने आयोजित किया था, उसके बाद भी वाचना के लिए सम्मेलन आयोजित होते रहे और सम्भवतः मथुरा में भी आर्य स्कन्दिल के पहले कोई वाचना- सम्मेलन हुआ, जिसकी ध्वनि इस मूर्ति में प्रतीत होती है। विकास-क्रम किसी भी जीवन्त - व्यवस्था में देश और काल की अपेक्षा से उत्पन्न परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन अवश्यम्भावी हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से ये परिवर्तन विकासक्रम को सूचित करते हैं, परन्तु कट्टर रूढ़िवादिता की दृष्टि से इनको व्यवस्था में विकार भी माना जाता है। जैनधर्म की वर्तमान व्यवस्था का मूल भगवान् महावीर द्वारा प्रवर्तित इतिहास के प्रति जैन दृष्टि :: 45 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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