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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir की ही जानकारी दी, अपितु ब्लैक होल-तमस्काय का वर्णन भी किया। पुद्गल के सूक्ष्म से सूक्ष्म रूप को 'परमाणु' कहते हैं। मनुष्य की प्रवृत्ति और परिणाम के अनुसार वैसे कर्म-परमाणु आत्मा से चिपट जाते हैं और उनमें शक्ति भी आ जाती है। ये कर्म फिर सुख-दुःख देते हैं। जैन कर्म-सिद्धान्त इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि इसके माध्यम से ईश्वरादि पर-कर्तृत्व या सृष्टि-कर्तृत्व के भ्रम को तोड़कर प्रत्येक प्राणी को अपने पुरुषार्थ द्वारा उस अनन्त चतुष्टय (अनन्त-दर्शन, अनन्त-ज्ञान, अनन्त-बल और अनन्तवीर्य) की प्राप्ति का मार्ग सहज और प्रशस्त किया है। । वस्तुतः प्रत्येक प्राणी अपने भाग्य का स्वयं स्रष्टा, स्वर्ग-नरक का निर्माता और स्वयं ही बन्धन और मोक्ष को प्राप्त करने वाला है। इसमें ईश्वर आदि किसी अन्य माध्यम को बीच में लाकर उसे कर्तृक मानना घोर मिथ्यात्व बतलाया गया है। इसीलिए 'बुज्झिज्जत्ति उट्टिज्जा बंधणं परिजाणिया'- आगम का यह वाक्य स्मरणीय है, जिसमें कहा गया है कि बन्धन को समझो और तोड़ो, तुम्हारी अनन्तशक्ति के समक्ष बन्धन की कोई हस्ती नहीं है। यद्यपि जन्म में तो शरीर के साथ ही आया, पर मरण के समय यह स्पष्ट हो जाता है कि देह मात्र रह गयी, आत्मा पृथक् हो गया, चला गया। ___ कार्य की उत्पत्ति में दो कारण माने जाते हैं-उपादान और निमित्त। निमित्त कारण वह होता है, जो उस उपादान का सहयोगी होता है, पर कारक नहीं। यदि प्रत्येक द्रव्य के परिवर्तन में पर द्रव्य को कर्ता माना जाय, तो वह परिवर्तन स्वाधीन न होगा, किन्तु पराधीन हो जाएगा और ऐसी स्थिति में द्रव्य की स्वतन्त्रता समाप्त हो जाएगी। इस सिद्धान्त के अनुसार जीव द्रव्य की संसार से मुक्ति पराधीन हो जाएगी, जबकि मुक्ति स्वाधीनता का नाम है या ऐसा कहिए कि पराधीनता से छूटने का नाम ही मुक्ति है। संसार में जीव का बन्धन यद्यपि पर के साथ है, पर उस बन्धन में अपराध उस जीव का स्वयं का है। वह निज के स्वरूप को न जानने की भूल से पर को अपनाता है और वहीं उसका बन्धन है और यह बन्धन ही संसार है। इस बन्धन से छूटने के लिए जब उसे अपनी भूल का ज्ञान होता है, तो वह उस मार्ग से विरक्त होता है। संसारी आत्मा अपने विकारी भावों के कारण कर्म से बँधा है और अपने आत्म-ज्ञान रूप अविकारी भाव से ही कर्मबन्धन से मुक्त होता है; पर संसारी और मुक्त दोनों अवस्थाओं में अपने उन-उन भावों का कर्ता वह स्वयं है, अन्य कोई नहीं। ज्ञानी ज्ञानभाव का कर्ता है और अज्ञानी अज्ञान-मय भावों का कर्ता है। 'समयसार' में आचार्य कुन्दकुन्द ने यही लिखा है यं करोति भावमात्मा कर्ता सो भवति तस्य कर्मणः। ज्ञानिनस्तु ज्ञानमयोऽज्ञानमयोऽज्ञानिनः॥ -संस्कृत छाया, 126 ॥ 490 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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