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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कारों से अलिप्त (पृथक) रहने का प्रयत्न करे। यह प्रक्रिया संवर कहलाती है, पर इतना ही प्रयास पर्याप्त नहीं है। आत्मा को तो पूर्व जन्मों के संस्कार भी घेरे रहते हैं एवं प्रभावित करते हैं। इन पूर्व जन्मों के संस्कारों से मुक्त होने या छूटने की साधना का नाम निर्जरा है। __ जीवन रूपी नौका में छेद हैं; जिनसे उसमें पानी भरता जा रहा है। छेदों को बन्द करना ही संवर-साधना है और जीवन रूपी नाव में पहले से ही जो पानी (पूर्व जन्मों के संस्कार) भरा हुआ है, उसे उलीचने का नाम निर्जरा है। संवर और निर्जरा के द्वारा जिसने अपने को आस्रवों (संस्कारों) से मुक्त कर लिया; वही मोक्ष का अधिकारी है। जैनदर्शन में मोक्ष (कैवल्य) की साधना, केवल संन्यासी ही कर सकते हैं। इन संन्यासियों को जैनधर्म में पाँच कोटियों (श्रेणियों) में बाँटा गया है, जिनका समन्वित नाम पंच परमेष्ठी है। ये पंच परमेष्ठी हैं: अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु । साधुओं को उपदेश देने वाले उपाध्याय और आचार्य कहलाते हैं। सिद्ध वह हैं; जिन्होंने शरीर छोड़कर मोक्ष प्राप्त कर लिया है और अर्हत् तीर्थंकरों को कहते हैं। अर्हत् तो चौबीस ही हुए हैं, किन्तु सिद्ध कोई भी जीव हो सकता है, जिसकी सांसारिक विषयवासनाएँ, भोग-विलास की लिप्साएँ छूट गयी हैं। जो सुख-दुःख से ऊपर उठ गया, जिसकी इन्द्रियाँ वशीभूत हैं, वह सिद्ध है। सिद्ध की कोटि परमात्मा की कोटि है। वैदिक दर्शन एवं जैन दर्शन में यह भेद है कि वैदिक धर्म में परमात्मा को मात्र एक ही माना गया है, जबकि जैनधर्म के अनुसार जो भी व्यक्ति सिद्ध हो गया, वह स्वयं परमात्मा है। अतः उस असीम विश्व-व्यक्तित्व की प्राप्ति के लिए इस कारास्वरूप दुःखमय क्षुद्र व्यक्तित्व का अन्त होना ही चाहिए। जब मैं प्राण स्वरूप से एक हो जाऊँगा, तभी मृत्यु के हाथ से मेरा छुटकारा हो सकता है। जब मैं आनन्द-स्वरूप हो जाऊँगा, तभी दुःख का अन्त हो सकता है। जब मैं ज्ञान-स्वरूप हो जाऊँगा, तभी सब अज्ञान का अन्त हो सकता है, और यह अनिवार्य वैज्ञानिक निष्कर्ष भी है। विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि हमारा यह भौतिक व्यक्तित्व भ्रम-मात्र है, वास्तव में यह शरीर एक अविच्छिन्न जड़-सागर में, एक क्षुद्र और सदा परिवर्तित होता रहने वाला पिण्ड है, और दूसरे आत्मा के सम्बन्ध में अद्वैत के अनिवार्य निष्कर्ष की प्रतिष्ठा करता है। विज्ञान : प्रकृति में व्याप्त तर्क-निष्ठ धर्म-लीला विज्ञान तो प्रकृति में व्याप्त धर्म का ही अनुसंधान करने में लगा हुआ है। विज्ञान एवं धर्म में विरोध कहाँ है? ...विज्ञान ने नीम को कड़वा और मीठे आम को मीठा पाया, तो विज्ञान ने क्या खोजा? ...उसने नीम के स्वधर्म का पता चलाया है और धर्म और विज्ञान :: 479 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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