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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (1) अनिष्ट संयोगज-विष, कण्टक, शत्रु एवं शस्त्र आदि जो अप्रिय पदार्थ हैं, वे अमनोज्ञ या अनिष्ट कहलाते हैं । उनके संयोग होने पर निरन्तर दुःखी रहना या उनके वियोग की चिन्ता में परेशान रहना अनिष्ट- संयोगज आर्तध्यान है । (2) इष्टवियोगज - अपने चाहे हुए स्त्री- पुत्र - धनादि सामग्री के वियोग हो जाने पर उनकी प्राप्ति के लिए निरन्तर चिन्तित रहना तथा वियोग पर निरन्तर खेद - खिन्न रहना, इसप्रकार की दुःखमयी प्रवृत्ति इष्टवियोगज आर्तध्यान है । (3) पीड़ा चिन्तनज - वात-पित्त-कफ आदि के प्रकोप से देह में होने वाले रोगों को देखते हुए तज्जन्य वेदना से निरन्तर चिन्तित रहना तथा ऐसी चिन्ता बनी रहना कि ऐसे रोगों की मुझे कभी भी उत्पत्ति न हो या ये शीघ्र नष्ट हो जाएँ, पीड़ा चिन्तनज तीसरा आर्तध्यान है । (4) निदानज - भोगों की इच्छा लिए हुए आगामी अनुकूल विषयों की प्राप्ति के प्रति निरन्तर संकल्परत रहना, चिन्तारत रहना निदानज आर्तध्यान है। उक्त चारों प्रकार का आर्तध्यान दुःखी जीवों को तिर्यंच गति के बन्धन के कारण होते हैं अर्थात् यह वर्तमान का दुःखमयीपना भविष्य की दुःखमयी गति का कारण होता है । 2. रौद्रध्यान - रुद्र का अर्थ क्रूर आशय है। ऐसा निर्दय स्वभावी, निरन्तर क्रोधी, अभिमान में चूर, पाप में प्रवीण जीव रौद्रध्यानी होता है । इस ध्यान से प्रभावित जीव ध्वंसात्मक भावों को प्राप्त होता है और उनकी प्रेरणा से अवांछित कार्यों में प्रवृत्त रहता है । इष्ट प्राप्ति में निरन्तर आनन्दित दिखता है । रौद्र ध्यान भी चार प्रकार का होता है – हिंसानन्दी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी और परिग्रहानन्दी । (1) हिंसानन्दी - तीव्र कषाय के उदय से हिंसा में आनन्द मानना । जीवों के समूह को अपने से या अन्य के द्वारा मारे जाने, पीड़ित किए जाने, ध्वंस किए जाने और घात किए जाने के लिए सम्बन्ध मिलाए जाने पर जो हर्ष माना जाए, वह हिंसानन्द नामक रौद्रध्यान है । (2) मृषानन्दी - जिन पर दूसरों को श्रद्धा न हो सके, ऐसी अपनी बुद्धि के द्वारा कल्पना की हुई युक्तियों के द्वारा दूसरों को ठगने के लिए झूठ बोलने के संकल्प का बार-बार चिन्तवन करना मृषानन्द है । (3) चौर्यानन्दी - जबरदस्ती अथवा प्रमाद पूर्वक दूसरे के धन को हरण करने के संकल्प का बार-बार चिन्तवन करना अर्थात् जीवों के चौर कर्म के लिए निरन्तर चिन्ता उत्पन्न हो तथा चोरी करके भी निरन्तर हर्ष, आनन्द माने, उसे चौर्यानन्दी रौद्रध्यान होता है । ध्यान, भावना एवं मोक्षमार्ग :: 423 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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