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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोक्षमार्ग है जिसकी प्राप्ति तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट आचार संहिता से ही सम्भव है। श्रमण संस्कृति व्यक्ति को देह से भिन्न अपनी शुद्धात्मा रूपी भेद-विज्ञान का दर्शन कराकर उसे निःश्रेयस के मार्ग पर चलने के लिए प्रवृत्त करती है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र अपनी समग्रता में ही मोक्षमार्ग का निर्माण करते हैं। प्राचीन काल से लेकर श्रमणधारा के प्रत्येक साधक ने सर्वप्रथम स्वयं के जीवन में इस रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग का अनुसरण किया और अपनी साधना की उपलब्धियों के अनन्तर इसी मोक्षमार्ग का प्रतिपादन किया। इससे जो आचार-संहिता निर्मित हुई, वह श्रमण परम्परा की एक समग्र ‘आचार संहिता' बनी, जिसमें गृहस्थ के जीवन से लेकर निर्वाण प्राप्ति तक की साधना और उसके उपयुक्त आचार-सम्बन्धी नियम-उपनियम आदि का विधान किया गया। आध्यात्मिक विकास के लिए आचार की प्रथम सीढ़ी सम्यग्दर्शन है। जिसका अर्थ है सच्चा श्रद्धान या विश्वास। बिना इसके ज्ञान विकास का साधक नहीं हो सकता और साधना भी सम्यक् नहीं हो सकती। इसीलिए श्रावक और श्रमण दोनों के लिए सम्यग्दर्शन अनिवार्य रूप से आवश्यक है। उसके बाद ज्ञान स्वतः विकासोन्मुखी हो जाता है, किन्तु सही ज्ञान की समग्रता साधना के बिना सम्भव नहीं। इसलिए ‘णाणस्स सारमायारो' अर्थात् ज्ञान का सार आचार है तथा 'चारित्तं खलु धम्मो' अर्थात् चारित्र ही धर्म है, कहकर आचार या चारित्र एवं तपश्चरण को विशेष रूप से आवश्यक माना गया है। सम्यग्दृष्टिव्यक्ति आचारमार्ग में प्रवृत्त होने के लिए क्रमशः श्रावक एवं श्रमण के आचार को स्वीकार करता है अथवा सामर्थ्य के अनुसार श्रमण धर्म स्वीकार कर लेता है। श्रावक और श्रमण के आचार का स्वतन्त्र रूप से विस्तृत विवेचन करके जैन मनीषियों ने जीवन के समग्र विकास के लिए स्वतन्त्र रूप से आचार संहिताओं का निर्माण कर दिया। विभिन्न युगों में देश, काल और परिस्थितियों के अनुकूल नियमोपनियमों में विकास भी हुआ है, तथापि सम्यक् चारित्र का मूल लक्ष्य आध्यात्मिक विकास करते हुए मुक्ति प्राप्त करना ही रहा है। श्रावक (गृहस्थ) एवं श्रमण (मुनि अथवा अनगार)- इन दो रूपों में सुव्यवस्थित जैन आचारसंहिता की सुदृढ़ आधारशिला और इसकी अपनी विशेषताओं के कारण ही जैनधर्म की मजबूत जड़ों को आज तक कोई हिला नहीं सका। इसीलिए तो पद्मभूषण आचार्य पं. बलदेव उपाध्याय ने ठीक ही लिखा है कि'आचार' श्रमण संस्कृति के उद्बोधक जैनधर्म का मेरुदंड है। जिस प्रकार मेरुदंड देहयष्टि को पुष्ट एवं सुव्यवस्थित बनाने में सर्वथा कृतकार्य है, उसी प्रकार आचार जैनधर्म को पुष्ट तथा परिनिष्ठित करने में सर्वतोभावेन समर्थ है।' ____ जैनधर्म के अनुसार आध्यात्मिक विकास की पूर्णता हेतु श्रावक या गृहस्थधर्म पूर्वार्ध है और श्रमण या मुनिधर्म उत्तरार्ध। श्रमणधर्म की नींव गृहस्थधर्म पर मजबूत होती है। यहाँ गृहस्थधर्म की महत्त्वपूर्ण भूमिका इसलिए भी है; क्योंकि श्रावकाचार की भूमिका में जैन आचार मीमांसा :: 303 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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