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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनागत सभी पर्यायों के अभाव को अन्योन्याभाव कहा गया है, अर्थात् वर्तमान पर्याय में उसी द्रव्य की अन्य-अन्य वर्तमान पर्यायों का अभाव ही अन्योन्याभाव है। उदाहरण के लिए दही में घास-भूसा-खली तथा घी-मिट्टी-पत्थर-लकड़ी आदि पुद्गल द्रव्य की अन्य-अन्य पर्यायों का अभाव अन्योन्याभाव है। 4. अत्यन्त अभाव-अन्य द्रव्य का अन्य द्रव्य में अभाव ही अत्यन्ताभाव है, या एक द्रव्य में दूसरे द्रव्य के अभाव को अत्यन्ताभाव कहते हैं। जैसे पुद्गल द्रव्य की दूध-दही आदि पर्यायों में अन्य द्रव्यों के चेतनत्व-अमूर्तित्व तथा गतिहेतुत्व आदि गुणों और पर्यायों का अभाव अत्यन्ताभाव है। अत्यन्ताभाव द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से कहा जाता है। परिणमन छहों द्रव्यों का स्वभाव है। इस परिणमन में दूसरे द्रव्य से किसी प्रकार के सक्रिय सहयोग की अपेक्षा या आवश्यकता नहीं होती। यही छहों द्रव्यों के शुद्ध परिणमन का नियम है; परन्तु जीव और पुद्गल, इन दो द्रव्यों का अशुद्ध परिणमन भी तो होता है, उनका नियम अलग है। इन दोनों द्रव्यों की अशुद्ध पर्यायों से ही संसार बना है। जगत में जितने भी चेतन और जड़ पदार्थ नाना रूपों में दिखाई देते हैं या अनुभव में आते हैं, वह सब जीव और पुद्गल की अशुद्ध पर्यायों की लीला है। संसार में संसरण करते हुए ये दोनों द्रव्य अशुद्ध दशा में ही हैं। यथार्थ यही है कि यह सारा जगत जीव और पुद्गल के निमित्त से निर्मित है। यहाँ ये दोनों परस्पर एक-दूसरे के लिए निमित्त और उपादान बनते रहते हैं और उसी बल पर यह सृष्टि चलती है। यहाँ कभी भी, कुछ भी, निमित्त के बिना न तो घटित होता है, न घटित हुआ है, और न कभी घटित हो सकता कर्मवर्गणा रूपी पुद्गल द्रव्य जीव के साथ बँधकर या मिलकर एकमेक होता रहता है। अपनी स्वनिर्धारित अवधि पूर्ण करके हर कर्मपुंज उदयरूप परिणमित होता है और अपना फल देकर जीव के साथ उसका निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध स्वतः समाप्त हो जाता है। कर्म के बन्ध और उदय का चक्र जीव की चेतना को ऐसे माया जाल में गाँस कर रखता कि उसके प्रभाव में जीव अपनी शक्ति भूलकर विवश हुआ संसार में भटकता रहता है। __ वास्तव में पुद्गल के प्रभाव में मदान्ध होकर जन्म-मरण करते रहना ही जीव की कायरता है। अपनी शक्ति भुलाकर, स्वयं अहितकर मार्ग पर भटकते रहना ही उसके भव-भ्रमण का कारण है। इस भ्रम का निवारण करने की शक्ति भी जीव में है; क्योंकि अपनी इस आन्तरिक सृष्टि का निर्माता ब्रह्मा स्वयं ही है। अवागमन के इस चक्र को अटल मानकर इसका पालनहार विष्णु भी जीव स्वयं ही है। अपने निज स्वरूप को पहचान कर इस स्व-रचित मिथ्या-सृष्टि का संहार करने की शक्ति भी उसके भीतर है, इसलिये आत्मज्ञान और आत्मध्यान का निमित्त जुटाकर, इस स्वरचित आन्तरिक सृष्टि का संहारक शंकर बनकर, अपने लिए जीव को स्वयं यह पुरुषार्थ करना होगा। मेरे लिए यह 276 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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