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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विस्तृत विवेचनाएँ की गई हैं। सभी संसारी जीवों में अनादि काल से लेकर भव-भ्रमण से मुक्त होने तक आहारभय-मैथुन और परिग्रह, ये चार संज्ञाएँ पाई जाती हैं। ये संज्ञाएँ जीव की चेतना को दूषित करके उसमें अन्य जीवों तथा पर-पदार्थों के प्रति उत्सुकता और आकर्षण उत्पन्न करती हैं, उदयागत क्रोध-मान-माया-लोभ आदि कषायों से प्रेरित प्राणी हिंसा-झूठ-चोरीकुशील और परिग्रह आदि पापों में संलग्न होकर सदैव कर्मबन्ध करता रहता है। बन्ध के साथ जीव और कर्म पुद्गल वर्गणाएँ मिलकर एकाकार हो जाते हैं। उनके बीच निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। दोनों बन्ध की अवधि भर एकसाथ, एक क्षेत्रावगाही होकर रहते हैं। अवधि पूरी होने पर बन्ध का सम्बन्ध समाप्त हो जाता है, तब वे कर्म वर्गणाएँ जीव से अलग होकर एक-क्षेत्रावगाही भी रह सकती हैं और पृथक् भी हो सकती हैं । समय आने पर योग्यतानुसार उसी जीव के साथ या अन्य जीव के साथ बँध जाती हैं। कर्मबन्ध और कर्मफल संयोगों की मध्यावधि में भी जीव और कर्म पुद्गलों के बीच खींचतान होती रह सकती है। जितना और जैसा बाँधा था उतना और वैसा ही कर्म प्राय: उदय में नहीं आ पाता, इस मध्यावधि में बद्ध कर्मों में अनिश्चित घट-बढ़ हो सकती है या होती रहती है। चेतन जीवद्रव्य के, और अचेतन पुद्गलद्रव्य के कर्म वर्गणाओं के, परस्पर बँधकर एक हो जाने, अवधि पूरी होने पर कर्म के उदय में आने और फल देकर पृथक् हो जाने की, संक्षेप में यही व्याख्या है। यों तो इन दोनों के बीच एकक्षेत्रावगाही सम्बन्ध भी होता ही है पर वह कर्मबन्ध का नियामक सम्बन्ध नहीं है। जीव और पुद्गल कर्मों के बीच निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध ही प्रमुख और कार्यकारी होता है। विद्वान पं. माणिकचन्दजी कौन्देय ने इस विषय में समन्तभद्र स्वामी के वचनों के अनुसार कार्य की निष्पन्नता में एक कारण को नहीं, वरन् कारण समुदाय या सामग्री की अनिवार्यता पर बल दिया है। समन्तभद्र स्वामी के अनुसार कार्य के होने में उपादान के साथ निमित्त का होना मात्र पर्याप्त नहीं है, बल्कि उसका सहकारी होना आवश्यक है। उन्होंने यह भी बताया है कि जीव के ज्ञान, इच्छा, और प्रयत्नों की उत्पत्ति में समवायि कारण, असमवायि कारण, निमित्त कारण आदि अनेक कारण अपना योगदान करते हैं। तब कहीं कार्य की सिद्धि होती है। न्यायाचार्य जी के साथ चर्चा के दौरान अनेक निमित्त कारणों की चर्चा आती रहती थी, उनमें से कुछ मेरी डायरी पर भी स्थान पाते रहे, जिन्हें यहाँ प्रस्तुत करना मुझे रुचिकर है 1. उपादान कारण, 2. निमित्त कारण, 3. उदासीन कारण, 4. प्रेरक कारण, 5. समर्थतम कारण, 6. अवलम्बन कारण, 7. सहकारी कारण, 8. शक्त्याधान कारण, 9. व्यंजक कारण, 10. कारक कारण, 11. समवायि कारण, 12. असमवायि कारण, 274 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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