SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 264
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir होता है, वही उत्पन्न होता है, यह सदुत्पाद है तथा पर्यायार्थिकनय से जो द्रव्य में विद्यमान नहीं होता है, वह उत्पन्न होता है - यह असदुत्पाद है। 64 पर्याय की कारण वह पर्याय स्वयं __जिनागम में एक ऋजुसूत्रनय का कथन है, इस नय की दृष्टि से विचार करने पर उत्पाद-व्यय आदि पर्यायों का कोई कारण नहीं होता है, न ही कोई उसका आधार होता है, न सहचारी होता है, न उसका कोई भूत होता है, न भविष्य होता है, उसका कोई कर्ता-कर्मकरण-सम्प्रदान-अपादान या अधिकरण भी नहीं होता है। बस! जो पर्याय है, वह वही है - इतना ही ऋजुसूत्रनय का विषय है। इसी के आधार पर निमित्त-उपादान के प्रकरण में तत्समय की योग्यता अर्थात् दोनों की तात्कालिक योग्यता को ही कार्य का वास्तविक कारण माना गया है। 65 द्रव्य-गुण-पर्याय का परस्पर-आश्रयत्व कुछ लोगों की ऐसी अवधारणा है कि द्रव्य की कथनी में पर्याय की बात नहीं आ सकती तथा पर्याय की कथनी में द्रव्य की बात नहीं आ सकती अथवा उनकी दृष्टि में द्रव्य की कथनी में केवल द्रव्य की बात आना चाहिए, गुण या पर्याय की नहीं और तथा गुण की कथनी में केवल गुण की बात आना चाहिए, द्रव्य या पर्याय की नहीं, इसलिए पर्याय की कथनी में केवल पर्याय की बात आना चाहिए, द्रव्य या गुण की नहीं। इस सम्बन्ध में वास्तविकता यह है कि द्रव्य की कथनी में या द्रव्यार्थिकनय से द्रव्य की समस्त पर्यायें या विशेष, सामान्य के रूप में ही दिखाई देते हैं तथा पर्याय की कथनी में या पर्यायार्थिकनय से देखने पर द्रव्य, पर्यायों अथवा विशेषों से तन्मय होने के कारण वह द्रव्य पर्यायस्वरूप ही भासित होता है। ऐसा नहीं है कि द्रव्यार्थिकनय किसी पर्यायरहित द्रव्य को देखता है और पर्यायार्थिकनय किसी द्रव्यरहित पर्याय को देखता है, बल्कि दोनों नय एक ही वस्तु को देखते हैं। द्रव्यार्थिकनय जिस वस्तु को सामान्यरूप से देखता है, पर्यायार्थिकनय उसे ही विशेषरूप से देखता है। तात्पर्य यह है कि द्रव्यार्थिकनय की कथनी में पर्यायों का अन्तर्भाव द्रव्य में हो जाता है और पर्यायार्थिकनय की कथनी में द्रव्य का अन्तर्भाव पर्याय में हो जाता है। शुद्धाशुद्ध द्रव्य-गुण-पर्याय शुद्धगुणपर्यायाधारभूतं शुद्धात्मद्रव्यं द्रव्यं भण्यते अर्थात् सिद्धपरमात्मा के द्रव्य को सिद्धपरमात्मा के शुद्धगुणों और शुद्धपर्यायों का आधारभूत माना है, उससमय भूत-भविष्य की पर्यायों का आधार उसे नहीं माना है। यहाँ सिद्धपरमात्मा की मात्र पर्याय को ही शुद्ध द्रव्य-गुण-पर्याय :: 255 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy