SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 251
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परन्तु कभी द्रव्य के लिए, कभी गुण के लिए, कभी पर्याय के लिए और कभी द्रव्यगुण-पर्याय आदि तीनों को मिलाकर भी प्रयुक्त होता है। वहाँ जो गुणों और पर्यायों को प्राप्त करते हैं अथवा जो गुणों और पर्यायों के द्वारा प्राप्त किये जाते हैं - ऐसे सर्व अर्थ 'द्रव्य' हैं; जो द्रव्यों को आश्रय के रूप में प्राप्त करते हैं अथवा जो आश्रयभूत द्रव्यों के द्वारा प्राप्त किये जाते हैं – ऐसे सर्व अर्थ 'गुण' हैं; तथा जो द्रव्यों को क्रमपरिणाम से प्राप्त करते हैं अथवा जो द्रव्यों के द्वारा क्रमपरिणाम से प्राप्त होते हैं – ऐसे सर्व-अर्थ 'पर्याय' हैं। द्रव्य-गुण-पर्याय का सामान्य स्वरूप द्रव्य- द्रव्य का लक्षण सत् है और जो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त है, वह सत् है। इस प्रकार द्रव्य का लक्षण उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य की एकता है। द्रव्य में प्रति-क्षण नवीन पर्याय की प्राप्ति रूप उत्पाद है, पूर्व पर्याय का त्याग, रूपव्यय है तथा द्रव्य का अपने स्वभाव-रूप में बने रहना ध्रौव्य है। जैसे- पुद्गल की नवीन घट रूपपर्याय का उत्पन्न होना उत्पाद है, उससे पूर्व की पिण्डरूप पर्याय का नाश होना व्यय है और दोनों अवस्थाओं में मिट्टीपने या पुद्गलपने में उसका कायम रहना ध्रौव्य है। परिणमन करते रहना द्रव्य का मूलभूत स्वभाव है, क्योंकि परिणमन के बिना द्रव्य में अर्थ-क्रिया या (प्रयोजनभूतक्रिया) और अर्थक्रिया के बिना उसके लोप का प्रसङ्ग आता है। इस सम्बन्ध में डॉ. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य ने कहा है- “प्रत्येक वर्तमानपर्याय अपने समस्त अतीत संस्कारों का परिवर्तित पुंज है और अपनी समस्त भविष्यत् योग्यताओं का भण्डार।... द्रव्य में उत्पादशक्ति यदि पहले क्षण में पर्याय को उत्पन्न करती है, तो विनाशशक्ति उस पर्याय का दूसरे क्षण में नाश कर देती है अर्थात् प्रति-समय यदि उत्पादशक्ति किसी नूतनपर्याय को लाती है, तो विनाशशक्ति उसी समय पूर्वपर्याय का नाश करके उसके लिए स्थान खाली कर देती है। इस तरह इस विरोधी-समागम के द्वारा द्रव्य प्रतिक्षण उत्पाद, विनाश और इसकी कभी विच्छिन्न नहीं होनेवाली ध्रौव्य-परम्परा के कारण विलक्षण होता द्रव्यों के छह भेद कहे गये हैं। यहाँ षड्द्रव्य कहने से द्रव्यों की कुल संख्या छह है- ऐसा नहीं समझना चाहिए, बल्कि द्रव्यों की जातियाँ छह हैं- ऐसा समझना चाहिए। द्रव्यों की संख्या तो अनन्तानन्त है। जबकि जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल – ये द्रव्यों की छह जातियाँ हैं। विश्व-संरचना की जो मूलभूत वस्तुएँ हैं, वे ही द्रव्य हैं । वे अनादिनिधन स्वतःसिद्ध हैं, उन्हें किसी ने बनाया नहीं है। वर्तमान में जो दृष्टिगोचर पदार्थ हैं, वे तो जीव-पुद्गल द्रव्यों की संयोग-जनित पर्यायें हैं; जैसे- हमें यह शरीर दिखायी देता है, यह मूलभूत द्रव्य नहीं है, यह तो एक स्थूल बहुत पुद्गल द्रव्यों के संयोग-जनित पर्याय है; परन्तु यह शरीर जिन मूलभूत परमाणुओं से रचित है, वे 242 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy