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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ने लिखा है कि नय का कार्य केवल विषय बताना है, उपयोगिता पर विचार करना नहीं, फिर भी संकल्प के अनुसार निष्पन्न वस्तु में उपकारादि की भी सम्भावना बनी रहती है। 'निगच्छन्ति तस्मिन्निति निगमनमात्रं वा निगम, निगमे कुशलो भवो वा नैगमः' अर्थात् अन्दर से विकल्पों का बाहर निकलना नैगम है। इन विकल्पों में जो रहे या उत्पन्न हो, वह नैगमनय है। लघीयस्त्रय ग्रन्थ में अकलंक ने इस नय को भेद या अभेद का ग्रहण करने वाला बताया है। यही कारण है कि उन्होंने नैगम आदि ऋजुसूत्र पर्यन्त चार नयों को अर्थनय माना है तथा अर्थाश्रित अभेद व्यवहार का संग्रह नय में अन्तर्भाव किया है। नैगमनय को सिद्धसेन-जैसे आचार्य उपचार कहकर नहीं मानते हैं। अर्थनय की अपेक्षा से 'न एकं गमः नैगमः' यह व्युत्पत्ति की जाती है। जिसका तात्पर्य है कि जो एक को ही विषय न करे, वह नैगमनय है। आगमिक साहित्य में इसके भेद-प्रभेदादि पूर्वक विस्तार से वर्णन पाया जाता है। संग्रह-नय सत्ता को विषय करता है। वह समस्त वस्तु-तत्त्व का सत्ता में अन्तर्भाव करके अभेदरूप से संग्रह करता है। सत्ता को विशेष ऊहा-पोह-पूर्वक स्पष्ट करते हुए आचार्य अकलंक ने लिखा है कि अनुगताकार बुद्धि और अनुगत शब्द प्रयोग का विषयभूत सादृश्य या स्वरूप जाति है। चेतन की जाति चेतनत्व और अचेतन की जाति अचेतनत्व है। अतः अपने अविरोधि सामान्य के द्वारा उन-उन पदार्थों का संग्रह करने वाला नय है। जैसे सत् कहने से सत्ता सम्बन्ध के योग्य द्रव्य, गुण, कर्म आदि सद् व्यक्तियों का ग्रहण हो जाता है अथवा द्रव्य कहने से द्रव्य व्यक्तियों का। स्याद्वादमंजरी के अनुसार विशेषों की अपेक्षा न करके वस्तु को सामान्य से जानना संग्रहनय है। अन्य आचार्यों ने भी प्रायः इसके इसी तरह के स्वरूप का विवेचन किया है। वस्तुतः संग्रह-नय एक ऐसी मनोवृत्ति है, जो विश्व के सभी गुण-धर्मों आदि भेदों को विस्मृत कर एक अखण्ड स्वरूप पर ही विचार करती है। यह नय पर और अपर के भेद से अनेक प्रकार का है। व्यवहार नय असत्य को विषय करता है, क्योंकि वह उन परस्पर भिन्न सत्वों को ग्रहण करता है, जिनमें एक-दूसरे का असत्य अन्तर्भूत है। सरल शब्दों में इसे इस तरह कह सकते हैं कि संग्रह-नय के द्वारा संगृहीत पदार्थों में विधिपूर्वक विभाजन करना व्यवहार नय कहलाता है। जैसे सर्वसंग्रह ने 'सत्' ऐसा सामान्य ग्रहण किया था, पर इससे तो व्यवहार चल नहीं सकता था। अत: भेद किया जाता है कि जो सत् है वह द्रव्य है या गुण, द्रव्य भी जीव है या अजीव, जीव और अजीव सामान्य से भी व्यवहार नहीं चलता, अतः उसके भी देव, नारक आदि तथा घट, पट आदि भेद लोक-व्यवहार में किये जाते हैं। आचार्य पूज्यपाद ने ऋजु का अर्थ प्रगुण किया है अर्थात् जो सरलता को सूचित करता है। ऋजुसूत्र नय का स्वरूप बताते हुए अकलंकदेव ने लिखा है 'सूत्रपातवदृजुत्वात् 234 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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