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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (क) आचार्य कुन्दकुन्द- बेड़ी चाहे सोने की हो या लोहे की, दोनों जैसे पुरुष को बाँधती ही हैं, उसी प्रकार पुण्य-पाप दोनों ही कर्म जीव को बाँधते हैं। अतः जो जीव इन पुण्य और पाप में अन्तर करता है। (अर्थात् पुण्य को अच्छा और पाप को बुरा बताता है; दोनों को समान रूप से हेय नहीं मानता है) वह मोह से व्याप्त होकर घोर संसार में परिभ्रमण करता रहता है। वे स्पष्ट करते हैं कि जो जीव परमार्थ को नहीं जानते हैं, वे ही जीव अज्ञानता में संसार परिभ्रमण के हेतु पुण्य को चाहते हैं; क्योंकि कि वे मोक्ष के कारण को नहीं जानते हैं। (ख) आचार्य योगीन्द्र देव- जो बन्ध के कारण 'विभाव परिणाम' एवं मोक्ष के कारण 'स्वभाव परिणाम' के भेद को नहीं जानता है, वही पुण्य और पाप दोनों से मोह करता है। कोई विरला ज्ञानी ही पुण्य को भी पाप के समान हेय जानता है।" (ग) आचार्य देवसेन- निश्चय से दोनों ही संसार के कारण हैं, अतः पुण्य और पाप में कोई अन्तर नहीं है। (घ) आचार्य अमृतचन्द्रसूरि- जैसे एक शूद्रा के दो पुत्रों में से एक ब्राह्मण के यहाँ पलकर मदिरा आदि को छूने से भी बचता है, और दूसरा जो शूद्रा के यहाँ पलता है, वह मदिरा से स्नान करने में भी बुराई नहीं मानता। ऐसा भेद दिखने पर भी दोनों वास्तव में एक ही शूद्रा के उदर से उत्पन्न होने के कारण साक्षात् शूद्र ही हैं। इसी प्रकार पुण्य और पाप दोनों ही हेयरूप आस्रव-बन्ध तत्त्वों के भेद हैं, उनमें किसी को अच्छा या किसी को बुरा मानना अज्ञान है।2 (ड) आचार्य अमितगति- अविनाशी, निराकुल सुख को न देखने वाले मन्दबुद्धि लोग ही पुण्य और पाप में अन्तर मानते हैं। (च) आचार्य ब्रह्मदेवसूरि- सम्यग्दृष्टि जीव के लिए पुण्य और पाप दोनों ही हेय हैं। ___ (छ) पंडितप्रवर टोडरमल- पुण्य-पाप दोनों ही आकुलता के कारण होने से बुरे हैं, क्योंकि जहाँ आकुलता है, वहीं दुख है। अत: पुण्य-पाप को भला-बुरा जानना अज्ञान है। ___ यद्यपि पुण्य और पाप दोनों पूर्णतः समान नहीं है और संसारावस्था में दोनों के साथ समान व्यवहार सर्वदा सम्भव भी नहीं है, क्योंकि 'तीर्थंकर प्रकृति' भी पुण्य प्रकृति ही है, और उसके उदय से होने वाले समवसरण, धर्मोपदेश, ऊँकारमयी दिव्यध्वनि आदि प्रशस्तकार्य सीधे-सीधे 'हेय' नहीं कहे जा सकते हैं, फिर भी नवपदार्थ विवेचन के पीछे यही अवधारणा है कि पुण्य और पाप-दोनों 'आस्रव' और 'बन्ध' तत्त्व के विशेष (भेद) जानकर मोक्षमार्गी जीव दोनों को समान रूप से हेय माने तभी वह संवर-निर्जरा रूप मोक्षमार्ग पर अग्रसर हो सकेगा, अन्यथा वह पाप के दुष्परिणामों से तत्त्व-मीमांसा :: 169 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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