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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 7. मोक्ष तत्त्व- "बन्धहेत्वभाव-निर्जराभ्यां कृत्स्नकर्म-विप्रमोक्षो मोक्षः। (तत्त्वार्थसूत्र 10/2) __ अर्थात् नवीन कर्म बन्ध के कारणों मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग का अभाव हो जाना तथा पूर्वबद्ध समस्त कर्मों की निर्जरा हो जाने से सम्पूर्ण कर्मों से रहित आत्मा की अवस्था विशेष का नाम मोक्ष है। इसके भी 'द्रव्य-मोक्ष' एवं 'भाव-मोक्ष' ये दो भेद बताये गये हैं। कर्मों के निर्मूलन में समर्थ शुद्धात्मोपलब्धिरूप जीव का परिणाम 'भाव-मोक्ष' है तथा पूर्वबद्ध समस्त कर्मों का आत्मा से अलग हो जाना 'द्रव्य-मोक्ष' है ___मोक्ष प्राप्त जीव अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य (बल) से सम्पन्न होकर पूर्ण स्वाधीन हो जाता है।" ___मोक्ष प्राप्त जीव को मुक्त कहा गया है। उक्त मोक्षलक्षण के अनुसार तो सर्वकर्म-बन्धन विमुक्त सिद्ध जीव ही वास्तव में मुक्त कहे जाते हैं, किन्तु चार घाति कर्मों से रहित एवं संसारचक्र से मुक्त अनन्तदर्शनादि चतुष्टय से सहित भावमोक्षवान् अर्हन्त परमात्मा को भी जीवन्मुक्त कहा गया हैभावमोक्षः केवलज्ञानोत्पत्तिः जीवन्मुक्तोऽर्हत्पदमित्येकार्थः। (पंचास्तिकायसार संग्रह, तात्पर्यवृत्ति टीका गाथा-150) जैसा कि जीव द्रव्य निरूपण में 'जीवन्मुक्त' एवं विदेहमुक्त–इन दो वर्गीकरणों में मुक्त जीवों को बताया गया है, तदनुसार जीवन्मुक्त जीवों के चरम शरीर एवं चार अघातिया कर्म विद्यमान रहते हैं और वे इसी मध्यलोक में आयु-कर्म पूर्ण होने तक रहते हैं, किन्तु विदेहमुक्त जीव उक्त चार अघातिया कर्मों के बन्धन से भी रहित होकर शरीर को भी छोड़कर अशरीरी सिद्ध भगवान् के रूप में लोकाग्र के शिखर पर स्थित 'सिद्ध शिला' पर अनन्तकाल तक अपने स्वाभाविक गुणों एवं अनन्त दर्शनादि में मग्न रहकर अव्याबाध रूप से (किसी को बाधा पहुँचाये बिना, किसी से बाधित हुए बिना) स्थित रहते हैं। इस ‘सिद्धशिला' के बारे में कहा गया है कि यह 'ईषत्प्राग्भार' नामक पृथ्वी के ऊपर स्थित है तथा इसका विस्तार एक योजन से भी कुछ-कम होता है। इस प्रकार संक्षेप में सप्ततत्त्वों का परिचय दिया। इन तत्त्वों के विषय में 'धर्मी' और 'धर्म' के रूप में वर्गीकरण आचार्य विद्यानन्द स्वामी ने इस प्रकार प्रस्तुत किया है "जीवाजीवौ हि धर्मिणौ, तद्धर्मस्त्वास्रवादय इति धर्मिधर्मात्मकं तत्त्वं सप्तविधमुक्तम्।"- (तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 2-1-4-48) अर्थात् सात प्रकार के तत्त्वों में जीव और अजीव ये दो तो 'धर्मी' रूप तत्त्व हैं तथा आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष-ये पाँच उन जीव और अजीव धर्मी तत्त्वों के 'धर्म' रूप तत्त्व हैं। इन सातों तत्त्वों का प्रयोजन की दृष्टि से एक अन्य वर्गीकरण भी जैनदर्शन में 166 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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