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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बनायी नहीं। कहीं भाषा के जानकार मिलते हैं, तो विषय के नहीं और कहीं विषय के मिलते हैं, तो भाषा के नहीं। कहीं विषय और भाषा दोनों के जानकार मिल जाते हैं, पर धर्मानुसार आचरण की क्रियात्मकता के नहीं और जो क्रियात्मकता के या क्रियाओं के विशेषज्ञ हैं, उनके पास भाषात्मक अभिव्यक्ति नहीं है। अगर किसी में भाषात्मक अभिव्यक्ति मिल जाती है, तो उसमें विषय की पूर्णता नहीं है। जैनों के सर्वविध विचारों और क्रियाओं के लक्ष्य को पाना किसी भी पुस्तक के लिए आसान भी नहीं है, क्योंकि उक्त कार्य का परिचय कराने के लिए कई खंडों में प्रकाशित होने वाला विश्वकोष का मॉडल ही समुचित है, फिर भी हमने उस लक्ष्य को पाने का कुछ आंशिक प्रयास इस पुस्तक की प्रस्तुति के माध्यम से किया है। हम नहीं जानते कि हम इसमें कितने सफल हुए हैं, पर हमने कोशिश जरूर की है कि कुछ अंशों में इस लक्ष्य को कम-से-कम हम जरूर पा सकें। जैनधर्म और उसके अनुयायियों की यह विशेषता रही है कि उन्होंने अपनी स्वतन्त्र पहचान बनाये रखकर भी निरन्तर अखंड भारतीयता को समृद्ध करने में अपनी भूमिका निभायी है। यदि अखंड भारतीयता की प्रस्तुति में जैनों के इस योगदान को जितने अंशों में ठीक से नहीं रखा जा पाएगा, तो भारतीयता उतने अंशों में अपने इस बहुत महत्त्वपूर्ण फलसफा से वंचित रह जाएगी। आप जैनों के जीवन के इतिहास और इसकी परम्पराओं को देखें, तो यह बात साफ उजागर होती है, कि मनुष्य की सृजनात्मकता का ऐसा कोई पक्ष नहीं है, जिसे जैन आचार्यों एवं मनीषियों ने अपनी सृजन की साधना से समृद्ध न किया हो, चाहे वह धर्म और दर्शन का विचार का पक्ष हो या आचार का, चाहे भाषा और साहित्य के शास्त्र का पक्ष हो या प्रयोग और उसकी रचनात्मकता का, चाहे कला और विज्ञान के द्वारा की जाने वाली यथार्थ की नित नयी परीक्षा के साथ कलात्मक या वैज्ञानिक तथ्यों व वस्तुओं की प्रस्तुति का हो या उनके विश्लेषण का, चाहे गणित के सिद्धान्त व परिगणन का हो या भौतिक विज्ञान के आकलन का, चाहे मूर्तिकला का हो या चित्रकला का या उनकी बारीकियों व सपाट प्रस्तुतियों का, चाहे आहार-विज्ञान का हो या पाचनविज्ञान का, चाहे गृहस्थ के जीवन का हो या साधक के जीवन का, आदि-आदि। यद्यपि यह भी सत्य है कि मनुष्य की सृजनात्मकता के इन सभी पक्षों को लेकर जैनों के अवदान को यहाँ पूरी तरह से इस पुस्तक में नहीं रखा जा सका है, फिर भी प्रयास रहा है कि अधिकांशतः सभी पक्ष इसमें समाहित हो जाएँ इसलिए अनेक पक्षों को विशेषज्ञों के आलेखों के माध्यम से की जाने वाली प्रस्तुति के रूप में इसमें रखा है, जिनमें से अनेक पक्ष जैनधर्म की इस प्रकार की परिचयात्मक पुस्तक में पहली बार प्रकाशित हो रहे हैं, और कई विषय नये विश्लेषण के साथ। ये इस प्रस्तुति में कई विषय हमसे छूट भी गए हैं, इसके पीछे भी तीन प्रमुख कारण रहे-1. हमें उस विषय के विशेषज्ञ अपनी समय सम्पादकीय ::9 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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