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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalashsagarsun Gyanmandir स्वपनं शयालुम् 4. पाती जनवादिनं जनान्वदति तम् 5. व्य जो अपगमम् ई. संशराय प्रच्छिदः प्रच्छि दनकर्ता। रम 7.517 // अक्षराजाय कितवं धूर्तम 8 कृताया आदिनवदर्शम, आदिनवो दोषस्तं पश्यति तथाभूतम 8. त्रेताय कल्पिनं कल्प कम / 10 / हापराय अधिकल्पिनम अधिकल्पनाकर्तारम् 11. अथ दशमे यूपे / आस्कन्दाय सभा भ्य'’ सिध्मलम्भूत्यैजागरणमभूत्यैस्वपुनमात्यैजनवादिनन्यड्या है अपगुल्म्भसशुरायाच्छिदम् // 17 // अक्षुराजायंकितुवम् // अक्षग़जायकिकितुवकृतार्यादिनवदर्शन्तायै कुल्प्पिनन्हापरीया / धिकल्प्पिनमास्क्वन्दायसभास्त्थाणुम्मृत्यवेगोव्यच्छमन्तकायगोपात क्षुधेयोगाँबिकृन्तन्तुम्भिक्षमाणऽउपतिष्ठति दुष्कृतायुचरकाचा य॑म्पाप्मनेसैलुगम् // 18 // प्रतिशल्कायाऽअत॒नम् // प्रतिश्श्रु उशिवम स्थाण सभायां स्थिरम. १.मृत्यवे गोव्यच्छं गाः प्रति गमनशीलम. 2. अन्त काय गोधामम गवां हन्तारम 3. क्षुधे योगां विक्रन्तन्त भिक्षमाण उपसिष्टतियः पुमान् गा विक्रन्तन्त छिन्दन्त भिक्षमाणो याचितार क्षुध दैव्यै पालभत 4. 612 दुःक्वताय चरकाचार्य चरकाण गुरुम 5. पाप्मनसैलग सोलगो दुष्टस्तदपत्यम.६. // 18 // प्रतिश्रुत्काय अतनं दुःखि For Private And Personal
SR No.020861
Book TitleUvvatbhashya
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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