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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobabirth.org Acharya Sri Kalassagarsur Gyarmandie भाषांतर अध्य०१७ ॥९२५॥ व्या-स पापश्रमण इत्युच्यते, सः कः ? यः साधुर्यत्किचिवस्तूपध्यादिकं प्रतिलेखयति, तदा किंचिनिशम्य उत्तराध्य- प्रतिलेखयति. कोऽर्थः ? यदा प्रतिलेखनावसरे कश्चिद्वार्ता करोति तदा तदातोश्रवणव्यग्रचित्तः सन् प्रतिलेखयतीपन सूत्रम् त्यर्थः, पुनर्यो गुरूनित्यं पराभवति संतापयति स पापश्रमणो भवति. ॥१०॥ ॥९२५॥ ते पापश्रमण एम कहेवाय के जे साधु जे कंइ वस्तु उपकरणादिकनुं प्रतिलेखन करे त्यारे कंइक सांभळीने प्रतिलेखन करे Balछे. शुं का ? जे समये प्रतिलेखन अवसरे कोइ वात करतो होय ते सांभळवामां व्यग्रचित होइने प्रतिलेखन करे अर्थात् मनविना ३८ प्रमादि बनी प्रतिलेखन=निरिक्षण करे, तेमज गुरुजनोने नित्य हमेशां पराभवे=संतापे ते पापश्रमण एम कहेबाय छे. १० बहमाई पमुहरी । थद्धे लुद्धे अणिग्गहे ।। असंविभागी अचियत्ते । पावसमणित्ति बुचई ॥११॥ | [बहुमाइ०] जे बहुमायी, प्रमुखर, स्तब्ध, लुब्ध, अनिग्रहं, अविभागी तथा अचियत्त होय ते पापश्रमण एम कहेवाय छे. ११ ___ व्या०-पुनर्यो बहुमायी प्रचुरमायायुक्तो भवति, पुनर्यःप्रमुखरः प्रकर्षेण वाचालो भवति, पुनर्यः स्तब्धोऽहंकारी, पुनयों लुब्धो लोभी, पुनर्योऽनिग्रहः, न विद्यते निग्रहो यस्य सोऽनिग्रहोऽवशीकृतेंद्रियः, पुनर्योऽसंविभागी गुरुग्लानादीनामुचिताहारादिना न प्रतिसंविभजति, पुनर्योऽचियत्त इति गुर्वादिष्वप्रीतिकर्ता स पापश्रमण इत्युच्यते. ॥११॥ जे बहुगायी-बहुज छळ कपटयाळो होय तथा प्रमुखरी-पकर्षे करी वाचाळ होय तेमज स्तब्ध अहंकारी वळी लुब्ध लोभी तथा अनिग्रह इंद्रियनिग्रह इंद्रियनिग्रह विनानो,अर्थात् जेनां इंद्रियो वश्य न होय, बळी जे असंविभागी-गुरुने के बीजा अशक्तने | all पोता पासेथी उचित आहार दइ तेने पोताना संविभागी करतो न होय तेवो, तथा जे साधु अचित्त गुरु विगेरेमां प्रीतियुक्त न For Private and Personal Use Only
SR No.020857
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 04
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorLakshmivallabh Gani
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1937
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size13 MB
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