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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir |भाषांतर अध्य०१७ | ॥९२१॥ (आयरिय) जे आचार्यों तथा उपाध्यायोने सम्यक्प्रकारे परितृप्त नथी करतो अने अप्रतिपूजक-अर्थात् पोताना उपर उपकार उत्तराध्यन करनारना प्रतिपूज्यभाव न राखनार तथा स्तब्ध-अनन-गर्विष्ठ होय तेने 'पापश्रमण एम कहेवाय छे. ५ पन सूत्रम् JE . व्या-ज्ञानविषयं पापश्रमणत्वमुक्त्वा दर्शनविषयमाह-य आचार्याणां पुनरूपाध्यायानां सम्यक्प्रकारेण ॥९२१॥ वैपरीत्यराहित्येन न परितृप्यति प्रीतिं न विदधाति, पुनर्योऽहंदादीनां यथायोग्यपूजायाः पराङ्मुखो भवति, अप्रति पूजको भवति, अथवोपकारकर्तुरप्युपकारं विस्मार्य विस्मार्य तस्य प्रत्युपकारं किमपि न करोति, सोऽप्रतिपूजक उच्यते. पुनः स्तब्धोऽहंकारी, मनस्येवं जानाति यदहं महापुरुषोऽस्मि, एतादृशो मुनियः स्यात् स पापश्रमण उच्यते. ५ पूर्व गाथामां ज्ञानविषयक पापश्रमणपणु कयु हवे आ गाथामां दर्शन विषयक पापश्रमणत्व कहे छे. जे आचार्योना तथा | उपाध्यायोना प्रति सम्यक् प्रकारे विपरीतता रहित रहीने परितृप्त नथी थतो-पीति नथी पामतो, वळी जे अहंत आदिकनी यथा योग्य पूजा करवाथी विमुख रहेछे एटले अप्रतिपूजक थाय छे. अथवा पोताना उपर उपकार करनारना उपकारने भूली जइ तेनो का पण प्रत्युपकार ( बदलो) वाळतो नथी ते पण अप्रतिपूजक कहेवाय. वळी जे स्तब्ध अहंकारी होय ( मनमा एम जाणे जे | " हुँ महापुरुष छु" ) एको जे मुनि=होय ते पापश्रमण कहेवाय. ५ संममाणो पाणाणि । बियाणि भरियाणि य ॥ असंजए संजयमन्नमाणो । पावसमणित्ति धुचई ॥६॥ (संमहमाणो०) जे प्राणोने-द्वित्रिचतुरिद्रिय जीवोने संमईमान-पीडतो तेमज बीज-शाळ घडं आदिक सचित्त धान्यादिकनु पण समईन करतो तथा हरित लीलां दृर्षादिक तथा फळ पुष्पादिकने पण मईतो, वळी जे असंयत होवा छतां आत्माने-पोताने संयत माननारी wwwwwwwwwwwwwwww For Private and Personal Use Only
SR No.020857
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 04
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorLakshmivallabh Gani
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1937
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size13 MB
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