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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्रम ॥८६३ ॥ تاحالشان الوان المالك في قناتنا الاعلانات مناوئاد जे आवो थइने परित्रज्या गृहण करे, अनियत रीते तथा प्रतिबंध रहित जेम थाय तेम विहार करे, ते खरो भिक्षुक कहेवाय; ते कोण ? जे प्रथमथी मनमां जाणे के-'हुँ मौन-मुनिनुं कर्म, साधुधर्म आचरीश, श्रमणपणानो अंगीकारकरीश.' केम करीने ? भाषांतर धर्म-दशविध पंचमहाव्रत दीक्षा पामीने-दीक्षा गृहण करीने, संस्तव आगळ पाछळना परिचय-कुटुंबस्नेह आदिकने त्यजी दीये, अध्य०१५ वळी स्थविर बहुश्रुत साधुओए सहित विचरे 'साधुये एकला न रहेg; 'एकलाने धर्म केवो ? आम कहेल छे. सहिए पदनो स्व- NE८६३ ॥ हिते पाठ मानीयेतो-पोताना हितमां वर्ती आत्महिताभिलाषी रही पुनः केवो ? ऋजु-सरल छे कृत जेतुं अर्थात् मायारहित तपः सम्पन्न; शठता रहित अनुष्ठान करनारो. वळी नियाणछिन्न छेदी नाखेल छे निदान जेणे एवो-नियाणारूपी शल्यथी रहित, तथा अकामकाम-जेने कामनी अभिलाष नथी एवो अने अज्ञातेशी जे कुलमां साधुना तपोनियमादि गुणो जणाया न होय तेवा कुलमांथी ग्रासपिंडादिकनी एषणा करवानुं जेनुं शील छे तेवो; जे उपर कहेला लक्षणोथी युक्त होय ते 'भीक्षु' एम कहेवाय. आ विवेचन उपरथी साधुए यथार्थ भिक्षुपणुं धारण करवा-'सिंहभावे नीकळी जq तथा सिंहभावेज विहार करवो' एम समनाव्युं. साधुना चार भांगां कह्यां छे; जेवां के-सिंहपणे परिव्रज्या ग्रहण करची अने सिंहपणेज पाळवी, (१). शियाळपणे दीक्षा लेवी अने शियाळपणेज पाळवी, (२), सिंहपणे दीक्षा ठेवी अने शियाळपणे पाळवी, (३), तथा शियाळपणे दीक्षा लेवी अने सिंहपणे पाळवी, (४), आ चारे प्रकारमा प्रथम प्रकार=सिंहपणे दीक्षा ग्रहण करवी अने सिंहपणेज पाळीने विहरवू; आ चारेमां श्रेष्ठ छे.१ | रागोवरयं चरिज लाढे । विरए वेयवियायरक्खिए । पन्ने अभिभूय सव्वदंसी जे । कम्हिवि न मुच्छिए स भिक्खूE (लाढे) प्रधान एवो साधु (राओ वरय') राग रहितपणे [चरिज] विचरे तथा [पिरए] विरतीवाळो होय [वअवि] आगमज्ञानी तथा SHO Ro: For Private and Personal Use Only
SR No.020857
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 04
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorLakshmivallabh Gani
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1937
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size13 MB
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