SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥९९३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्रीयोनी साथे एकज आसन उपर बेसी जमवानां, तथा खास फरमाएशयी तैयार करावेलां अन्नपानतुं सेवन, ते पण खूब अन्नपाननो उपयोग, वळी अंग शोभाववा वस्त्राभूषणादि धारण अने दुर्जय कामभोगोनुं उप सेवन आ सकळां अवीर पुरुषोए त्यजी न शकाय तेवां ब्रह्मचारी पुरुषे परिहरणाय = दुरबीन खाज्य के ११ १२ १३ दुज्जये कामभोगे व । निञ्चसो परिवज्जए । संकाठाणाणि सव्वाणि । वज्जिज्जा पणिहाणवं ॥ १४ ॥ दुर्जय कामभोगोने नित्यशः दमेशां परिवर्जयां, अने सर्व शंकास्थानने पण प्रणिधानवान सावधान रही वर्जवां त्यजयां १४ न्या—प्रणिधानवःनेक्राग्रचित्तः सर्वाणि दशापि शंकास्थानानि यानि पूर्वोक्तानि तानि वर्जयेत्. पुनर्दुर्जयान् कामभोगान् परिवर्जयेत्. पुनः कामभोगग्रहणमत्यंत निवारणोपदेशार्थं ॥ १४ ॥ प्रणिधानवान् =एकाग्रचित्त रही ब्रह्मचर्यवारी पुरुषे सर्व दशेय शंकास्थान जे पूर्वे कड़ेवामां आव्यां ते तमामने वर्जवां त्यजवां पुनः तथा दुर्जय एवा कामभोगोने पण परिवर्जवा = तद्दन त्यजी देवा फरीने कामभोग पदनुं ग्रहण क ते ए कामभोगो निवारण करवा योग्य छे; एनाथी बचवा पुनः पुनः यत्नवान् रहेवं, एवा उपदेश माटे छे, १४ अत्यंत धारा चरे भिक्खू । धिइमं धम्मसारही ॥ धम्मारामे रए दंते । यं भवेरसमाहि ॥ १५ ॥ ब्रह्मचर्यमां समाहित=सावधान रहेतो भिक्षु, धर्मराम धर्मरूपी उद्यानमां विचरे धृतिमान् तथा धर्म छे सारथि जेनो वो बनी धर्ममां निरंतर रमण करनारा - साधुओनां संगमां दांत जितेन्द्रिय रही हमेशां वर्से. १५ For Private and Personal Use Only व्या- ब्रह्मचर्य समाधिमान् भिक्षुः साधुर्धर्मारामे चरेंत्. धर्म आराम इव दुःखसंतापनशानां सहेतुत्वात्, 毛美美美无毛美 भाषांतर अध्य०१६ ॥९१३॥
SR No.020857
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 04
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorLakshmivallabh Gani
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1937
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy