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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्य-DE यन सूत्रम् भाषांतर अध्य०१६ ॥८९६॥ ॥८९६|| वितिगिच्छा वा समुप्पजिजा, भेयं वा लभिजा, उम्मायं वा पाइणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायक हविजा केवलिपनत्ताओ धम्माओ भंसिजा, तम्हा खलु नो निग्गंथे इत्थीणं कुतरंसि वा, दृसंतरंसि वा, भित्तितरंसि वा, कूइयसई वा, रूइयसई वा, गीयसई वा, हसियसई वा, थाणियसई वा, विलवियस वा, सुणमाणे विहरेज्जा ॥५॥ निग्रंथ-साधु, कुख्य खडकेला पोषाणनी ओथे अथवा दृश्य-तंबुनी कनातनीतओथे वा भीतनी ओथें छुपा रहीने स्त्रीयोना कूजित शब्दने, वा रुदित शब्दने वा गीत शब्दने, वा हसिन शब्दने, वा स्तनित शब्दने, वा कंदित शब्दने अथवा विलपित शब्दने श्रवण करनार न थाय, ते खरो निग्रंथ 'ए केम' आवी शिष्य कदाच शंका करे एम धारी आचार्य कहे छे निश्चये निर्ग्रथने स्त्रीयोना, कुडयांतरमाथी अथवा कृष्यांतरमाथी वा भित्तिना अंतरमाथी कृजित शब्दने वा रुदित शब्दने, गीतशब्दने वा हसित शब्दने अथवा स्तनित शब्दने वा कंदित शब्दने सांभळ्तां ब्रह्मचारीने पण ब्रह्मचर्यमा शंका, कांक्षा, विचिकित्सा समुत्पन्न थाय भेद पामे अथवा उन्माद प्राप्त थाय, दीर्घकाळना रोग तथा आतंक थइ पडे, अने तेथी केवळ प्रज्ञापित धर्मथी भ्रष्ट थवाय, ते माटे निग्रंथे निश्चये स्त्रीयोना कृजित शब्दोने वा रुदित शब्दोने वा गीतशब्दोने, हसितशब्दोने, अथवा स्तनितशब्दोने तथा विलपितशब्दोने कुड्यना अंतरमांथी अथवा दूष्यना कनातना अंतरमाथी अथवा भीतना अंतरमाथी सांभठतां विहार न करवो. ५ ___ व्या०–सनिग्रंथो भवेत् , स इति कः ? यः कुड्यांतरे कुख्य पाषागरचितं, तेनांतरं व्यवधानं कुब्यांतरं, तस्मिन् कुड्यांतरे स्थित्वेत्यध्याहारः दृष्यांतरे वा वस्त्ररचितभित्त्यंतरे परिच्छदाया अंतरे स्थित्वाः, भियंतरे मृत्तिकापक्केष्टिकाणां भित्तिव्यवधाने स्थित्वा वा, इत्थीणमिति स्त्रीणां कूइयसई संभोगसमये भोक्तुर्मनःप्रसत्तये कोकिलादिवि For Private and Personal Use Only
SR No.020857
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 04
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorLakshmivallabh Gani
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1937
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size13 MB
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