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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्य यन सूत्रम् ॥९६७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अविचार्य भवद्भिरेतत्कृतं यत उक्त आ सागरने साठ हजार पुत्रो थया ते सर्वेना मध्यमां जन्हुकुमार ज्येष्ठ = सहुथी महोटो=डतो. एक समये जन्दुकुमारे कोइ प्रसंग सगरने संतुष्ट कर्या तेथी ते बोल्या के 'जन्दुकुमार ! तने जे गये ते मागी ले' जन्हु बोल्यो के - 'तात ! मारो एवो अभिलाष छे के तानी आज्ञा लइ चउद रत्न सहित समग्र भाइओने साथै लइ पृथ्वी परिभ्रमण करूं' सगर चक्रीए आ बात मंजूर करी. सारु मुहूर्त्त जोइने सगरचक्री पासेवी सैन्य तथा वाहनो सहित नीकल्या. अनेक देशोमां फरता करता अष्टापद पर्वत पासे आव्या. सकल सैन्यने नीचे राखीने पोते सर्व भाइओने साथै लइ अष्टापद उपर चज्या; त्यां भरत नरेंद्रे करावेलां मणिसुवर्णमय चोवीश जिनप्रतिमाओए अधिष्ठित तथा सेंकडो स्तूपसंगत जिनायतन जोयां. जिनमतिमाओ अभिनंदन करी जन्दुकुमारे मंत्रिओने पूछयुं के - 'आ अत्यंत रमणीय जिनभवन क्या पुण्यशालिये करावेलां छे ? मंत्रिओक के - आपना पूर्वज श्रीभरतवक्रोये आ निर्माण करावेल छे,' आ सांभळीने जन्दुकुमार बोल्या के- 'आ अष्टापद पर्वत जेवो अन्य कोइ अष्टापद पर्वत छे ? ज्यां आपणे आज बीजुं चैत्य करावीये. चारे दिशाओमां शोध करवा पुरुषो मोकलवामां आव्या, तेओ सर्वे भ्रमण करीने पाछा आध्या अने बोल्या के–'स्वामिन् ! आवो पर्वत क्यांय नथी' त्यारे जन्हुकुमारे क — ' जो एम होय तो आपणे आ पर्वतनी रक्षा करीये. कारण के आ क्षेत्रमां काले करी लोभी तथा शठ पुरुषो थाशे माटे नवु कराववाना करतां पूर्वे करेलानुं परिपालन विशेष श्रेयस्कर छे; आम विचारी दंड रत्न हाथमां लइ जन्हु बगेरे सर्वेय कुमारो अष्टापदने पडखे चारे तरफ खोदवा लाग्या. ए दंडरत्नवडे योजन सहस्र भेदी नागभवनें पहोंच्या पोतानां स्थान भेदातां जोड़ नागकुमारो शरण गोतता गया ज्वलनप्रभनागनी समीपे पोताना भवनो For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१८ | ॥९६७॥
SR No.020857
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 04
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorLakshmivallabh Gani
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1937
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size13 MB
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