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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्य०१८ ॥९६०॥ धर्मधार्थधौं, तभ्यामुपशोभितमर्थधोपशोभितं. एतादृशं जिनोक्तं सिद्धांतमर्थधर्मसहितं श्रुत्वा यदि भरतश्चक्रधरः संपूर्णभरतक्षेत्रं षखंडसाम्राज्यं त्यक्त्वा दीक्षा जग्राह, तदा त्वयाप्यस्मिन् जिनोक्तागमे चलितव्यं, महाजन। येन यन सूत्रम् गतः स पंथेत्युक्तत्वात्. मकलनुपेषु ऋषभपुत्रा भरता मुख्यस्तेनायं मार्गः समाश्रित इत्यर्थः ॥३४॥ ॥९६०॥ ___ अनन्तर जात्रयमान संयतमुनि प्रत्ये धर्ममार्गे प्रवृत्त थयेला महापुरुषांना दृष्टांतोथी कहेला अर्थने हद करे छ. हे मुने ! भरत नामा चक्रवर्ती पण आ भरतक्षेत्र छ खंडनी ऋद्धिवाद्धं त्यजाने तेमज कामभोगोने त्यजीने पत्रजीत यया-दीक्षा पाम्या. केम करीने ? आ पूर्वोक्त पुण्यपद सांभळीने, पुण्य एटले पवित्र अर्थात् निष्कलंक-निषण, अथवा पुण्य एटले पुण्यनुं हेतुभूत एवं पद | एटले जेनाथी ज्ञान पमाय अथवा जेनावडे अर्थबोध थाय तेवु पद-जिनोक्त आगम, अर्थात्-क्रियावादी वगेरे विविध रुचिना वर्ज| ननुं बोधक शब्द सूचनात्मक शास्त्र, तेने सांभळीने अथवा पूर्णपद एवो पाठ मानीये तो अहों पद शब्दे करी ज्ञान समजबुं; पूर्णपद | एटले संपूर्ण ज्ञान. केवु ज्ञान ? अर्थधर्मोपशोभित=लोको जेनी अर्थना-अभिलाषा करे ते अर्थ एटले स्वर्ग मोक्षादि तथा धर्म एटले It पूर्वोक्त अथैनो उपायभूत आवा अर्थ तथा धर्मवडे उपशोभित एवा जिनांत सिद्धांतने सांभळी जो भरत चक्रीए संपूर्ण भरतक्षेत्र IF छ खंडना साम्राज्यने त्यजीने दीक्षा लीधी तो पछी तमारे पण आ जिनांतं आगम मार्गमा चालधुं. 'जे मागे महाजन संचों el तेज मार्ग' एवं नीति वचन छे तेथी ज्यारे सकळ नृपतिमा दुख्य समपुत्र भरते ए मार्गनो आश्रय कर्यो त्यारे तमारे पण एज योग्य छ. ३४ For Private and Personal Use Only
SR No.020857
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 04
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorLakshmivallabh Gani
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1937
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size13 MB
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