SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥८०४ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्ताभिलाषः पुनः कीदृशः सः ? उदग्रचारितपाः, उदयं प्रधानं साध्वाचारे सर्वविरतिलक्षणं दशविधरूपं चारित्रं, | तपो द्वादशविधं यस्य स उदग्रचारित्रतपाः एतादृशः सन् मोक्षं प्राप्तवित्रजीवमुनिरिति सुधर्मास्वामी जंत्रस्वामिनं | ब्रवीति. हे जंबू ! अहं तवाग्रे इति ब्रवीमि ॥ ३५ ॥ इति चित्रसंभृतीयं त्रयोदशमध्ययनं संपूर्ण ॥ १३ ॥ इति | श्रीमदुत्तराध्ययन सूत्रार्थदीपिकायां उपाध्यायश्रीलक्ष्मी कीर्तिगणिशिष्यलक्ष्मीवल्लभगणिविरचितायां चित्रसंभूतीयम|ध्ययन संपूर्ण ॥ १३ ॥ चित्रमुनि पण = पूर्वभवना चित्रजीव साधु पण महर्षि=महामुनि, अनुत्तर सर्वनी उपर वर्त्तता सिद्धिस्थाने गया. केम करीने ? अनुत्तर=जिनाज्ञा विशुद्ध सत्तरमकारनो संयम पालीने, केवा ते साधु ? कामभोगथी विरक्त = निवृत्ताभिलाष तथा उदग्र-प्रधान साधुना आचार, सर्वविरति लक्षण दशविध चारित्र तथा द्वादशविध तपःसंपन्न यह मोक्ष पाम्या चित्रजीव मुनि, एम सुधर्मास्वामी कहे छे के हुं एम बोलुं कुं. ने अहिं चित्रसंभूतीयनामक त्रयोदश अध्ययन पूर्ण थयुं. एवीरीते लक्ष्मी कीर्तिगणिना शिष्य लक्ष्मीवल्लभ मूरिए निर्मित उत्तराध्ययनना तेरमा अध्ययननी वृत्ति समाप्त थाय छे. For Private and Personal Use Only भाषांतर अध्य०१३ ॥ ८०४ ॥
SR No.020856
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorLakshmivallabh Gani
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1936
Total Pages291
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy