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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्सराध्यघनसूत्रम् भाषांतर l अध्य०१३ ॥७८२॥ ॥७८२॥ महर्द्धिकस्य कुले पुत्रत्वेनोत्पन्नः, तत्र चक्रवर्तिवत्तस्य ऋद्धिरासीत् , प्रतिदिनं सुवर्णदीनाराणां कोटिं याचकेभ्यो ददान | आसीत्. निरंतरं च षट्ऋतुसुखदायकेषु मनोहरोच्चैस्तरप्रासादेषु भोगान् भुंजानोऽनेकगजतुरगरथयानादिकऋद्धिमान् सुरूपकामिनीनां परिकरेण परिवृतो द्वात्रिंशद्विधं नाटकं पश्यन् सदा सुखनिमग्नो बहुधा भोगरसयुक्तो बभूवैति | कथानकं ज्ञेयं. ॥ ११॥ [पूर्व भवना नामथीज ऋषि संबोधे छे.] हे संभूत ! महाराज ! जेम तमे पोतागे महानुभाग तथा महर्द्धिक अने पुण्य फळोपेत | जाणो छो तेम चित्रने [मने] पण तेवोज जाणो. महोटो अनुभाग जेनो छे ते महानुभाग, एटले महोटा महात्म्यवाळो, तथा महोटी ऋद्धि-जेने होय ते महर्दिक पुष्कळ लक्ष्मीवाळो तेमज पुण्य फळवडे संपन्न, एवो जाणो. 'च' शब्द हेतु अर्थमा अत्रे प्रयुक्त छे, जे कारणथी-चित्रने (मने) पण ऋद्धि एटले द्विपद-नोकर चाकर, चतुष्पद=गायो भेसो घोडां वगेरे, धनधान्यादि सकळ संपत्ति al अने युति दीप्ति, प्रचुर-पुष्कळ जाणजो. अहिं वृद्ध संप्रदाय एम छे के-जेम निदान सहित संभूत साधु चक्रवती थया तेम चित्र साधु निदान रहित एक समृद्ध शेठना कुलमां पुत्र थइने अवतर्या, त्यां तेने चक्रवर्तीना जेवी समृद्धि हती, प्रतिदिन एक कोटि सुवर्ण दीनार याचकोने देता हता, निरंतर छये ऋतुओमां सुखदायक मनोहर उंचा महेलोमां नाना प्रकारना भोगो भोगवता अनेक हाथी घोडा रथ वाहनादिक ऋद्धिमान् इता तथा मुरुप कामिनीओथी घेरायेला बत्रीश प्रकारनां नाटको जोता, सदाय मुखमां निमग्न रही अनेक विध भोगरस लेता हता. (आ कथानक परंपरा श्रुत छे) ११ महत्थरूवा वयणप्पभूआ । गाह। णुगीया नरसंगमज्झे ।। For Private and Personal Use Only
SR No.020856
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorLakshmivallabh Gani
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1936
Total Pages291
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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