SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषांतर अध्ययन ॥३०५|| अत्र तत्कथा-केचिद्धातुर्वादिनः सदीपाः संधवा बिलं प्रविष्टाः, तत्पमादारीपे विध्याते महातमोमोहिता || उत्तराध्य- इतस्ततो भ्रमंतः प्रचंडेन विषधरेण दष्टा गर्तायां पतिता मृताः, एवं प्राप्तसम्यक्त्वा अपि महामोहवशात्पुयन मुत्रमा नर्मिध्यात्वं गच्छंतीति परमार्थः.. ॥३०५॥ तेनुं दृष्टांत कहेछे-केटलाक धातुवादी पुरुषो हाथमां दीवा लइ सँधबाबील खाणना धडमां-पेठा तेओना प्रमादथी दीवा ठरी जतां महोटा अंधकारथी मोहित थइ चारे कोर आथडी आथडी प्रचंड विषधर नाग डंसवाथी ए खाडमांज 56 पढीने मुवा. एम जेने सम्यकल प्राप्त थय होय एवा पण महामोहने वश बनी पाछा मिथ्याखमा जाय छे; एवो आ दृष्टा तनो परमार्थ तात्पर्यार्थ छे ५ सुत्तेसुआवीपडिबुजीवी। न वीससे पंडिय आसुपण्णे ॥ घोरा महत्त। अबलं सरीरं। भारंडपंक्खीव चैरऽप्पमैसो | मूलार्थः-(आसुपण्णे)=भाशुप्रज्ञ (पडिबुद्धजीवी)-प्रतिबुद्ध (पडिअ) पंडित पुरुष (सुससुआधी) द्रव्यथी अने भावथी सुता होध तो पण तेमने बिषे (न वीससे विश्वास न करे कारण के (मुहुत्ता क्षणमात्र (घोरा) महाभयंकर छे तथा शिरीरं]-शरीर पण [अवलं] बळरहित छे तेथी करीने (भारुडपख्खीय)-भारंडपक्षीनी जेम (अप्पमत्त)-प्रमादरहित (चर =तु चाल ६ व्याख्या-प्रतिबुद्धजीव्यनिद्रोणमादी पुमानन्येषु सुप्तेष्वप्यविवेकिनरेषु निद्रायुक्तेषु सस्वपि न विश्वसेद्विश्वासं नैव कुर्यात् , कीदृशः सः ? आशुप्रज्ञः तत्कालयोग्यबुद्धिमान , आशु शीधं कार्याकार्येषु प्रवृत्तिनिवृत्तिरूपा प्रज्ञा मतिर्यस्य स आशुप्रज्ञः, यतो मुहर्ताः कालविशेषा घोराः प्राणापहारित्वाद्रौद्राः, शरीरमवलं बलरहितं For Private and Personal Use Only
SR No.020855
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorLakshmivallabh Gani
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1935
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy