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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उत्त. श्रीवीतरागने नमस्कार करूंडं. | नमः सिद्ध श्रीवीतरागायनमः ॥ संयोगाविष्पमुक्कस्स ॥ विविनयने पा० प्रगट करीस्य अनुक्रमे नि० निरवद्यभि का प्रवर्तयानो स्वभाव बेजेतेने नि कहिए एवा साधुनो. भिस्कूष्णो ॥ नि० तह दृष्टीनें www.kobatirth.org संग बाह्य अभ्यंतरसंजोग बाह्यते मातपिताप्रमुष अभ्यंतर ते मिथ्यात्तविषयादिक सं० संजोगधी वि० विशेष मूकाएगा बे गुरुनी o समीप रहे बानी. का करहार २१ कहीस. विएयं पानुकरिस्सामि ।। अणुपुविं इं० शरीरनीचेष्टाइ करीयामि ते इंगित इंगियागारं माझानी हतनी गुरु गुरुनी दृष्टीने कराहार उ निदेसकरे ॥ गुरुरणमुववायकारए | त तेवी नितशिष्य इ० इम कहिए चइ ॥ २ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only म० नथी आगार जेने विषे ते एागार ॥ प्रागारस्स सुसांभसमुज कहि- प्रा० गुरू ताथका १ नीमाझाने सोहमे ॥ १ ॥ आशा सं० शरीरना भावी मुडाई करी जालि मननो अभिप्राय एवं जाएापो करी सहि संपन्ने ॥ समीपरवान सेविशिएत्तिषु प० प्रत्यनीकं बैरी करणहार का. करणहार सरो. आएणानिद्देसकरे ॥ गुरुणमडर्णुक्वायकारए ॥ परिणि ॥ प्र.१
SR No.020853
Book TitleUttaradhyayan Sutra Mul Tabarth
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorKhetsi Jivraj Shah
PublisherKhetsi Jivraj Shah
Publication Year1895
Total Pages447
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size23 MB
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