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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उप चिं-|| टीकायां चतुर्थः सर्वविरत्यधिकारः समाप्तः ॥ तामा.४ अथाशेषं पूर्वोक्तमर्थमुपसंहरन्नाह ॥ मूलम् ॥--इह दुलहसामग्गी-पूवा विरई मए उहाऽनिहिया ॥ जं आयणिय भविया । नणु जिणधम्मे पयर्टेति ॥ ५० ॥ व्याख्या--इत्युक्तप्रकारेण दुर्लनसामग्रीपूर्वा मया देशतः सर्वतश्चेति द्विधा विरतिरनिहिता. तत्र द्वितीयेऽधिकारे सामग्रीदुर्लभता, तृतीये देशविरतिः, चतुर्थे सर्व विरतिश्च, यां विरतिमाकर्ण्य जव्या आसन्न सिद्धिका ननु निश्चितं | जिनधमें प्रथमाधिकारव्याख्याते प्रवर्तते, ज्ञानश्रमानाचरणैरुयबंति, तेन चतुर्णामप्यधिकाराणां परामर्शः कृतः. ॥ ५० ॥ इदानीं जिनधर्मप्रवृत्तानां विशेषस्थैर्यापादनार्थमाह ॥ मूलम् ॥-अप्पत्थियं सुहं ए३ । जाइ अनिसेहियं ऽहं तेसिं॥ जेसिं जिणोवसु। | होइ अत्येसु अणुरा ॥ ५१ ॥ व्याख्या-उत्तानार्था, नन्वेवं सकलसुखानां सुखनेऽप्युपाये किमद्यापि विश्वव्यापि संतापमनुजवंति जंतव इत्याह -- ॥ मूलम् ॥-जे संसारपरित्ता । गुरुसु जत्ता गुणेसु आउत्ता ॥ तेसि चिय जिणवुत्तं । For Private and Personal Use Only
SR No.020847
Book TitleUpdesh Chintamani Satik Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayshekharsuri
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1922
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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